पलको से टकरा-टकरा
आखिर लुढक ही गई
आंखों के अन्दर
और
रैटीना में फैल गई
अपने पूरे विस्तार के साथ
मेरी तस्वीर।
मैं कुछ समझ पाता कि
उसने पलक बन्द कर
निगल लिया मुझे
ह्रदय के अंतरतम तक
और बुदबुदाई
अब तुम जा सकते हो।
मैं
दुनियाई बवंडर में
उलझा
अपने दायित्व, कर्म
धर्म निभाता
लगभग बूढा हो गया,
वो कभी याद नहीं आई,
क्योकि उसे कभी
भूला ही नहीं।
फिर यह विश्वास कि
मैं तो उसके
ह्रदय में ही हूं।
सोच बुदबुदाता हूं
वाह रे समर्पण।
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
4 दिन पहले
19 टिप्पणियां:
लगता है अमिताभ ने
कविता की है
अपनी पूरी सच्चाईयों के साथ
उसी को अर्पण
वाह रे समर्पण।
सुंदर मन।
Kai baar aatmik khushi hoti hai kai baar bahut dard, aise samarpan se !!
ek baar fir baat to sahi se samjhane main safal hue...
"Ud ke jaate hue panchi ne itna hi dekha,
Der tak saakh hilati rahi thi apna haatha"
ALVIDA KEHNE KO, YA PAAS BULANE KO.
-GULZAR
...aur wo kal ki baat to zehan main gehre tak reh gayi bus !! Sahej ke rakh li hai use!!
वाह रे समर्पण , सही है
smrpan me apeksha kyo?
ankho se hrday me hai to jeevan prynt sath hai .
bhut sarthk abhivykti. drashan bhi hai vigyan bhi hai .
abhar
Amitabhji,
gazab, gazab, gazab/ kya baat he Amitabhji..mene jab bhi aapko pada he khyal yahi aya ki aakhir sahitya me log apko dekh kyo nahi paa rahe he? kya sahitya kuch naami-girami logo ke bich me hi keid hokar rah gaya he/ jo admi morketing nahi karta, jo shudhdh rup se sahityik he use kyo nahi sammanit kiya jata he? wah ri sahityik duniya/ par amitabh ki kalam badastur chalti rahegi isi kamana ke saath apka mitr
-rajesh
मैं कुछ समझ पाता कि
उसने पलक बन्द कर
निगल लिया मुझे
ह्रदय के अंतरतम तक
WAAH KYA PANKTIYA HAI/AAPAKI YAH BHAW TO DIL KI GAHARAYI TAK PAHUNCH/WAAH KYA BAT HAI...........
लगभग बूढा हो गया,
वो कभी याद नहीं आई,
क्योकि उसे कभी
भूला ही नहीं।
फिर यह विश्वास कि
मैं तो उसके
ह्रदय में ही हूं।
सोच बुदबुदाता हूं
WAAH KYA BHAW HAI/AISA SAMARPAN KYA BAAT HAI .....
SACH BATAU AAPAKI LEKHANI KO SALAM
............AAPAKI RACHANAYE SAMWEDANA KE SUKSH STAR KE HOTE HAI.......JO PADHAKAR BEHAD SAKUN MILATA HAI .......BAHUT BAHUT BADHAYI
पलको से टकरा-टकरा
आखिर लुढक ही गई
आंखों के अन्दर
और
रैटीना में फैल गई
अपने पूरे विस्तार के साथ
मेरी तस्वीर।
मैं कुछ समझ पाता कि
उसने पलक बन्द कर
निगल लिया मुझे
ह्रदय के अंतरतम तक
और बुदबुदाई
अब तुम जा सकते हो।
ye paksh to anjaana raha ,bahut sundar .pappu par hi dobara tippani karne gayi phir sochi kuchh naya hai kya dekhu ,nikale kahan w pahunche kahan ,magar manzil ye bhi thi haseen ...ek mahine me lauti bahar se to dheere -2 sab blog pe pahuchne ki koshish kar rahi hoon
aapki kavita me aapka purna samarpan ati sundar
सच अमिताभ जी पढने के बाद जी भर आया। ना जाने क्यों? शब्दों से जो जज्बात लिखे आपने वो दिल को छू गए।
पलको से टकरा-टकरा
आखिर लुढक ही गई
आंखों के अन्दर
और
रैटीना में फैल गई
अपने पूरे विस्तार के साथ
मेरी तस्वीर।
अमिताभ ऐसा कैसे लिख लेते है जी। आँशू को किस रुप से कह दिया आपने।
मैं कुछ समझ पाता कि
उसने पलक बन्द कर
निगल लिया मुझे
ह्रदय के अंतरतम तक
और बुदबुदाई
अब तुम जा सकते हो।
इन्ही लाईनों ने दिल जीत लिया हमारा। सच पूछिए अपनी भावानाओं को शब्दों में लिख नही पा रहा हूँ। बस एक शब्द कहूँगा अद्भुत।
मैं
दुनियाई बवंडर में
उलझा
अपने दायित्व, कर्म
धर्म निभाता
लगभग बूढा हो गया,
वो कभी याद नहीं आई,
क्योकि उसे कभी
भूला ही नहीं।
फिर यह विश्वास कि
मैं तो उसके
ह्रदय में ही हूं।
सोच बुदबुदाता हूं
वाह रे समर्पण।
क्या भाव लिखे है। और जिदंगी की विवशता को सुन्दर शब्दों से व्यक्त कर दिया।
वो कभी याद नहीं आई,
क्योकि उसे कभी
भूला ही नहीं।
दिल को छूती हुई बात कह दी। क्या नही है इस रचना में। काश हम अपने भावों ऐसे लिख पाते। खैर आप लिख रहे है तो भी दिल खुश हो जाता है ऐसा लगता है जैसे हमने ही लिखा है।
पलको से टकरा-टकरा
आखिर लुढक ही गई
आंखों के अन्दर
और
रैटीना में फैल गई
अपने पूरे विस्तार के साथ
मेरी तस्वीर।
क्या कहूँ..इन पंक्तियों को पार करने तक पत्थर हो चुका था..इतने गजब के बिम्ब..इतने पैने भाव..नश्तर की तरह सुराख कर देता है जेहन मे यह समर्पण-भाव.
नत-मस्तक हूँ मै..आपकी इस विलक्षण काव्य-दृष्टि के आगे.
लाजवाब अमिताभ जी ......... कविता में छिपे भाव और मासूम स्विक्रक्ति ............. तस्वीर से पूरा आत्मसात कर लेना और फिर विस्तृत संसार में अपने कर्मों को पूरा करने को मुक्त कर देना .............. समर्पण की अध्बुध कल्पना ................ बहूत ही सुन्दर रचना, सुन्दर कविता है ..........
'फिर यह विश्वास कि
मैं तो उसके
ह्रदय में ही हूं'।
-सुन्दर bhaav लिए achchhee कविता...
-Amitabh ji,विजयदशमी की ढेरो शुभकामनाएं
वाह रे समर्पण।
धन्य हो गया आपका कविता भाव पढ़ कर. कितनी गहरी बातें कितने सहज अंदाज़ में कह गए.
हार्दिक बधाई.
सब कुछ तो है अर्पण.
अब क्या चाह, क्या अभिलाषा
अमिताभ न रख कोई आशा,
जब तक तू कहना मानेगा
दिल इसी तरह धड़कता रहेगा
best of luck............
चन्द्र मोहन गुप्त
jaipur
www.cmgupta.blogspot.com
सुशिल जी से आपके बारे में सुनता रहता था...
आज आपका ब्लॉग देखा.. बेहद प्रशंसनीय और दिलचस्प...
मीत
पलको से टकरा-टकरा
आखिर लुढक ही गई
आंखों के अन्दर
और
रैटीना में फैल गई
wah kya baat hai bahut hi sunder.
प्रिय अमित ,बहुत दिन बाद आ पाया ।दुनियाई बवन्ड्रर मे उलझा था,मै तो दायित्व कर्म भी नही निभा पाया ।मै तो लगभग ही नही पूरा ही बूढा हो गया हू ।आपका समर्पण वास्तव मे समर्पण है ""मैने उसको न भुलाया न कभी याद किया""कुछ समझ पाने के पूर्व ही पलक बन्द कर लेना, अन्तर तम तक निगल लेना और फिर कहना, अब तुम जा सकते हो । बहुत अच्छा लगा "" तेरी मेहफ़िल से मुझको उठाता गैर, क्या मज़ाल , मैने देखा था-तो तू ने ही इशारा कर दिया
amazing poem amitaabh ji
main to nishabd hoon aapki is anmol kruti par .. shabd jaise bhaavo ko pahankar aankho ke saamne kahde ho gaye ho.... second para to bus ulti mate hai dost...
badhai
Sabhi rachnayein sundar hain... lkn is sabse hridayaspparshi rachna k liye badhai sweekaar karein...
Behad achha aalekh...karodon ke mankee baat kahee...'Nobel' paritoshik ke bareme manme shanka-see ho gayee..
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