जिस गठरी में भर कर लाया था
कुछ यौवन , कुछ यादें , कुछ शौक और कुछ आदतें
वो बीच सफर में समय के डकैतों ने छीन ली।
और अचानक , एकदम से
चलते चलते कंगाल हो गया।
न यौवन रहा , न यादें रहीं , न कोई शौक और न मसखरी आदतें।
कौन पूछता है
खाली लटकने वाले जेब को ?
जो कभी तलहटी पर ही दिखा जाता था
वह आज पहाड़ पर चढने के बाद भी
दिखता नहीं।
क्योंकि कंगाल आदमी
ब्रह्माण्ड का वह सूक्ष्म ग्रह है जिसकी खोज नहीं होती।
2 टिप्पणियां:
गहन भाव अभिव्यक्ति।
वो गठरी भी खाली हो जाती है. दार्शनिक भाव लिए सुंदर प्रस्तुति.
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