मन-मस्तिष्क भटके हुए हैं, भटके इन द सेंस अस्थिर हैं, जिसमें आप बैठकर कोई बेहतर लेखन नहीं कर पाते, किंतु विचारों के चक्रवात में भी फंसा है मन, जो उगल देना चाहता है जो कुछ भी हैं, जैसा भी है..। तो उस 'विज्ञापन' की तरह जिसमें रितिक रोशन की टोपी बवंडर में उडती है और वो अपनी बाइक लेकर उस बवंडर को चीरते हुए अपनी टोपी हासिल कर लेता है, ठीक वैसा ही प्रयास मेरा है, शेष आप बतायें-
"अचानक मन ने चाहा कि
कभी कुछ अच्छा भी सोचा जाये।
अच्छा यानी भला-भला सा
चाहे वो दीन-दुनिया के बारे में क्यों न हो?
किंतु क्या?
मेरे चारों ओर लगभग
सड चुके विचारों की दुर्गंध है,
बोथरी हो चुकी रचनात्मकता है
उलझे हुए जीवन हैं
और मरी हुई जिजीविषा है।
उधर सीमा पार
जब फर्लांग मार कर जाता हूं तो
काटने-मारने की आवाजें ही कानों में पडती हैं।
इधर भी ज्यादा कुछ अंतर नहीं है।
वातानुकुलित कमरों में बैठकर
खेत-खलियान की बातें हैं,
और खेत-खलियान कभी
सूरज की तपन से तो कभी
बादलों के प्रकोप से उजडे पडे हैं।
किसानों की आंखों से टपकते आंसू
उनके 'लोन' अदा नहीं कर सकते।
उनके बच्चों के पेट
मिलावटी खाद और रासायनिक पदार्थों से
भरे नहीं जा सकते।
अरे, मगर यह सब तो मुझे सोचना नहीं है
क्योंकि आज कुछ अच्छा सोचने
की दरकार करता है मन।
हां, जब फसल अच्छी होती है तो
चेहरे नाचने लगते हैं।
कम से कम उन्हें तो पता नहीं है
कि यह सब
स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है,
जो ऊंचे दाम अदा करके
खाते हैं अनाज।
वैसे भी जीवन कितना बडा होता है?
और सुखद यह कि
यह सब जानती है सरकार भी।
सडक पर निकलते समय
भले ही डर लगता है कि
कहीं कुछ हो न जाये?
भले ही घर में बीवी
लौट आने पर राहत महसूस करती है।
किंतु इससे
आतंक का खात्मा तो नहीं हो सकता न?
पर खुशफहमी है कि
खुद बच निकले।
लालच और भ्रष्ट आचार में
आकंठ डूबे हिन्दुस्तानियों की
वीरता देख कर भी लगता है कि
कोई सरकार या कोई कानून उनका
बाल बांका नहीं कर सकता,
क्योंकि
चाहे सरकार हो या कानून
सब कोई एक ही थैली के चट्टे-बट्टे से
दिखते हैं,
और क्या यह कम बडी बात है कि
हमारे हर कार्य शीघ्रता से निपट जाते हैं
और टेबल के नीचे
मुस्कुराता दिखता है शिष्टाचार।
धर्म पाखंड से खंडित है
तर्क, कुतर्कों में सध रहे हैं
वचनबद्धता बेमानी हैं
प्रवचन जारी हैं,
'रंग' भी लड रहे हैं,
यानी सबकुछ गड्डमड्ड है।
यह चूरमा है उस रोटी का जो बासी है
मगर खिलाई जा रही है शौक से।
'वो' करोडों में खेलते हैं
चाहे 'योग' के नाम या 'भोग' के नाम से,
हैं परम पूजनीय,
और यह उम्मीद कि संतों के देश का
कल्याण संभव है,
यह विचार कुछ देर तक तो शुभ लग सकते हैं न?
किंतु सच से मुख मोडा
नहीं जाता और तुलसी बाबा ध्यान आ जाते हैं
कि-
कलिमल ग्रसे धर्म सब
लुप्त भए सदग्रंथ।
दंभिन्ह निज मति कल्पि करि
प्रगट किये बहु पंथ।
भए लोग सब मोहबस
लोभ ग्रसे सुभ कर्म,
सुनु हरिजान ग्यान निधि
कहउं कछुक कलिधर्म।
कलिधर्म का सच होता सिलसिला
बखान होगा तो
वह सोच जाती रहेगी कि
कुछ अच्छा सोचना है।
किंतु विडंबना भी है कि
क्या अच्छा सोचूं?
ख़ास दिन …
3 दिन पहले
6 टिप्पणियां:
main bhi isi udhed-bun mein hoon ki aapki soch ko..kalam ko kis tarah se paribhashit karoon...adamy!
प्रियवर अमिताभ जी
सादर सस्नेहाभिवादन !
क्या अच्छा सोचूं?
सर्वप्रथम तो यही कहूंगा … आप जब भी , जो भी सोचेंगे … अच्छा ही सोचेंगे ।
ईमानदार शब्दशिल्पी ईमानदार इंसान अवश्य होता है …
धर्म , राजनीति , समाज , मध्यम वर्ग , किसान , दोहरापन , आतंकवाद , भ्रष्टाचार आदि आदि … … … इतने व्यापक विस्तृत फ़लक पर एक रचना के माध्यम से लिख देना आप ही की सामर्थ्य है !
कवि चिंतित हो तो स्थिति वाकई संतोषजनक नहीं हो सकती …
ऐसी रचनाएं प्रतिक्रिया से बहुत ऊपर हुआ करती हैं !
साधु …
♥बसंत ॠतु की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !
♥
- राजेन्द्र स्वर्णकार
अमिताभ जी मेरा सदा से मानना रहा है कि जो मन में उसे कह देना अगर कोई व्यक्ति ना मिले तो ब्लोग पर ही सही निकाल जरुर देना चाहिए क्योंकि इसका सबसे बड़ा फायदा होता है कि आपका कुछ पल के लिए सही मन हल्का हो ही जाता है और आज की टेंशन से भरी जिंदगी ये जरुरी है। नहीं तो....... वैसे जो आपके मन चल रहा है भला सा......वो दुनिया के बेहिसाब जहर के आगे बहुत कम है पर अच्छी चीजें कम होती है और धीरे धीरे से सही पर बढती है एक अच्छी दुनिया की लौ जलाए रखती है।
Wah! Hamne achha padh to liya!!
आसपास जब कुछ भी अच्छा न दिख रहा हो तो अच्छाई से विश्वास तो उठ ही जाता है.पर हमें भी तो हार नहीं माननी चाहिए.
अरे वाह विचित्र कितना अच्छा और सारगर्भित लेकिन मजेदार लिखते हो तुम ,मैअचंभित हूँ और बहुत खुश भी .तुम्हारी सूरत भी बहुत बदल गई है बड़े -बड़े से लगने लगे हो . मेरी कल्पना में तो वही ५-६ साल के थे .
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