-मैं भूल गया
उन मानसिक दबावों,
जानबूझ कर
दिये गये अप्रत्यक्ष तनावों को,
भूल गया तमाम कडवे अनुभव.......
क्योंकि मुझे लगता है
कडवी दवाई
अमूमन सेहत के लिये
हितकारी होती है।
-आज अगर मैं टिका हूं
या भले ही सलीब पर टंगा हूं
फिर भी सोचने में
बुराई नहीं कि
आखिर उन सच्चे
हृदयवालों की दुआयें
फिज़ूल कैसे हो सकती हैं?......
क्या यह विश्वास
जीवन को गति नहीं दे सकता?
-इसलिये
ईसा के अंतिम वाक्य
गूंजते हैं
"ये नहीं जानते कि क्या कर रहे हैं......।"
प्रेम का होना ...
2 दिन पहले
25 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर और प्रेरणादायक रचना...
bahut hi sundar
पिछली कुछ रचनाओं में मैं देख रहा हूं 'कुछ खास'? और यह भी जानता हूं कि शब्दों में उतार कर आप जैसा ही लेखक जागरुकता फैला सकता है। गम्भीरता से पढ गया मैं..अद्भुत आध्यात्म कर बैठा। पता नहीं कितना और सोचा जा सकता है...। डॉक्टर हूं तो कडवी दवाई का गहराई से सन्दर्भ जान गया। और विश्वास का यह कोण अपने आप में ही अज़ब है अमिताभजी। फिर ये सचेत करना कि कितने नासमझ हैं वो..समझ जाओ। ईसा वाक्य..या अमित वाक्य।
-आज समय मिला मुझे ब्लॉग देखने का..
-डॉ. राजेश वर्मा
बेहतर...
Yahi wishwas to safar ka tosha hai!
Bade tareeqese pesh kee hai aapne apni samvedansheelta!
आज अगर मैं टिका हूं
या भले ही सलीब पर टंगा हूं
फिर भी सोचने में
बुराई नहीं कि
आखिर उन सच्चे
हृदयवालों की दुआयें
फिज़ूल कैसे हो सकती हैं?......
अमिताभ जी....
कितनी गहराई है आपके शब्दों में!
कठिन और दुर्गम रास्तों से भी हिम्मत से ,मुस्कराते हुए गुज़रना होगा..चाहे वे किसी के बनाये हुए क्यों न हों ,यह भी परीक्षा है .
'नासमझ जो हैं उन्हें एक न एक दिन समझ आ ही जाएगी.'समय 'किसी को कभी बख्शता नहीं है.
और शुभचिंतकों की दुआएं कभी बेकार नहीं जा सकतीं .
ईसा वाक्य कभी गलत हो ही नहीं सकता.सही लिखते हैं आप.
आखिर उन सच्चे
हृदयवालों की दुआयें
फिज़ूल कैसे हो सकती हैं?......
सही है । इस विश्वास को बनाये रखिये ।
जी चाहता है कि खूब ........
यह रचना खास ही है। आपको बधाई।
aapki bhasha shaili bahut bhati hai mujhe!
Bahut adhik Gehrai liye hue.... Bahut hi behtreen!
sach to hai jeevan ko vishvas hi to gti deta hai .kuchh khas hai is rachna me jo bhut der tk bandhe rkhti hai .
इसलिये
ईसा के अंतिम वाक्य
गूंजते हैं
"ये नहीं जानते कि क्या कर रहे हैं......।"
कितना सच है !!!! सोचने को मजबूर करती रचना.बड़ी सहजता से इतनी गंभीर बात कह गये.
"ये नहीं जानते कि क्या कर रहे हैं......।"
बहुत कुछ क्या सब कुछ कह गयी ये बात...अब कुछ बाकि नहीं रह जाता कहने को.
बहुत गूढ़ रचना.
मंगलवार 06 जुलाई को आपकी रचना ... चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है आभार
http://charchamanch.blogspot.com/
"आखिर उन सच्चे
हृदयवालों की दुआयें
फिज़ूल कैसे हो सकती हैं?......
क्या यह विश्वास
जीवन को गति नहीं दे सकता?"
Bahut sundar....
Kyaa baat hai.
"ये नही जानते कि ये क्या कर रहे हैं" सचमुच हम कोई नही जानते कि हम क्या कर रहे हैं क्यों आपस मे लड़ रहे हैं मर रहे हैं कट रहे हैं? सुन्दर रचना।
बेहतरीन सोच को सार्थक शब्द दिए हैं आपने...बधाई
नीरज
"ये नहीं जानते कि क्या कर रहे हैं......।"
जब सोच इसा के करीब पहुँच जाती है तो निर्वाण की स्थिति आ जाती है ... अपना पराया ख़त्म हो जाता है .. दर्द दर्द नही रहता ... कड़वा पन मीठा लगता है ... बहुत ही प्रभावी लिखा है अमिताभ जी ....
मानसिक तनाव की तीव्रता
और
सार्थक शब्दों की सच्चाई ....
अनुपम संगम बन पडा है अमिताभ जी
प्रेरणादायक रचना ... !
जी अमिताभ जी !
जीवन के कडुवे अनुभव ही हमें सिखाते हैं और रह में चलने की शक्ति देते हैं और दुआएं तो हमेशा कारगर होती हैं ! प्रत्यक्ष हों या ना हों ! कहीं ना कहीं असर जरूर करती हैं !
जीवन के फलसफों को बहुत गहराई से समझाते हैं आप हमेशा !
अगली रचना का इंतज़ार रहेगा :)
Bau jee,
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Jai Ho!
हम खुद नही जानते कि हम क्या कर रहे हैं और क्यों कर रहे हैं..और मजे की बात है कि फिर भी सलीब पर भी हमें ही टंगना होता है..और अनुभव की कड़वी दवाइयां भी काम नही आती हैं...
कविता विचारों को गति देती है और बम्प्स भी...
wah .bahot sunder.
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