1,
हां मैं हारा हुआ हूं
अब बताओ कैसे जीतोगे मुझसे?
मगर सावधान रहना तुम
जीत स्थाई नहीं होती।
और न हार....।
2,
गुरुर के लायक हो
सबकुछ तो है तुम्हारे पास,
इसलिये आंखे भी बन्द है,
और मैं गुरबत में
तुम्हे खुली आंखों से देख रहा हूं।
3,
सुना है
पुण्य भी कटते हैं
चलो आज मैं
अपने पाप काटता हूं
तुम पुण्य काटो।
4,
तुम्हारा नाम
अखबारों में है
बडे आदमी बन गये हो तुम,
मैं छोटा हूं,
एक रद्दी की दुकान है बस।
मंगलवार, 15 जून 2010
मंगलवार, 1 जून 2010
आदमीयत से भरी सोच
सबकुछ उल्टा-पुल्टा है। लिखना या पढना कठिन हो चला है। अब यह देखने वाली बात है कि इमानदारी और मेहनत से भरा प्रतिभायुक्त पिचका पेट आखिर कितनी और पराजय पचा सकता है? कब तक बडे पेट वालों की डकार अपने नथूनों में भरकर चाटुकार अपनी चमक बिखेरते रहेंगे? कोई एक तो होगा जो उम्मीद जैसे शब्द को साकार बनाता हो? यह है एक आदमीयत से भरी सोच, जिसका कोई बीमा नही होता। खैर....
"जब रेंकने वाले गधे
भौंकने लगे
तब समझो आदमी के
धैर्य की
परीक्षा शुरू हो जाती है।
उनकी यह पदोन्नति है या अवनति?
जो भी हो किंतु
परिस्थितियों की इस
कोचिंग क्लास में
सीख यही मिलती है कि
आखिर गधों की उम्र
आदमी की उम्र से कम होती है।"
"जब रेंकने वाले गधे
भौंकने लगे
तब समझो आदमी के
धैर्य की
परीक्षा शुरू हो जाती है।
उनकी यह पदोन्नति है या अवनति?
जो भी हो किंतु
परिस्थितियों की इस
कोचिंग क्लास में
सीख यही मिलती है कि
आखिर गधों की उम्र
आदमी की उम्र से कम होती है।"
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