किसी भी व्यक्ति को उसकी किताब से पूरा-पूरा नहीं जाना जा सकता। वैसे भी किसी व्यक्ति को पूरा कब जाना जा सका है, हां उसके करीब रह कर उसकी प्रकृति, उसका स्वभाव, उसकी आदतें आदि जानी जा सकती है और जब ऐसे व्यक्ति किसी के बारे कुछ लिखते हैं तो हम उक्त व्यक्ति के सन्दर्भ में अपनी रूप रेखा बना सकते हैं। बस यही रूप-रेखा खींची है मैने डॉ. चरणदास सिद्धू को लेकर। इस देश में कई ख्यातिनाम नाटककार हुए हैं। उनमे से एक यदि मैं चरणदास सिद्धू को गिन लूं तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। ठीक है कि मैने कभी सिद्धू साहब के नाटक नहीं देखे, कभी इसके पहले तक उनके नाम से परिचय नहीं हुआ, कभी उनसे मुलाकात नहीं हुई, किंतु यह कतई जरूरी नहीं होता कि आपके जीवन में कभी कोई महान व्यक्ति आ ही नहीं सकता। समय-समय की बात होती है जब आपको मिलने, पढने आदि को प्राप्त होता है और तब आप कह उठते हैं कि अरे, मैं इनसे पहले क्यों नहीं मिल पाया या मैं इतना अज्ञानी रहा कि अब जा कर इनके बारे में पता चला? खैर देर आयद दुरुस्त आयद। धन्यवाद दूंगा सुशील छौक्कर जी का जिनके माध्यम से मैं डॉ.चरणदास सिद्धू के नाम से परिचित हुआ, फिर उनकी 'नाट्य कला और मेरा तजुरबा' तथा 'नाटककार चरणदास सिद्धू, शब्दचित्र' जैसी किताब पढ पाया। दोनों किताबें सुशीलजी के सौजन्य से ही मुझे प्राप्त हुई। एक आदमी जिसने अपना पूरा जीवन नाटकों को समर्पित कर दिया, जिसने नाटक के अलावा कुछ और सोचा ही नहीं, जिसने अपने सामने आए कई सारे बडे प्रतिष्ठित पदों को ठुकरा दिया, जिसने अपने घर-परिवार तक को नाटक की दीवानगी में दूसरे पायदान पर रखा और जो आज भी नाटक के लिये ही जी रहा है क्या ऐसे व्यक्ति के बारे में जानना-समझना कोई नहीं चाहेगा? क्या ऐसे व्यक्ति बिरले नहीं? मैं समझता हूं कि किसी भी कार्य को करने के लिये सनक होनी चाहिये, सनक यानी दीवानगी आपको कार्य की सफलता तक छोडती है और यदि सफलता की चमक में आपकी आंखे चौन्धियाती नहीं है तो समझो आप सचमुच के आदमी है। बस यही 'आदमी' माना जा सकता है चरणदास सिद्धू को। सुशीलजी ने इनकी बारे में काफी कुछ बताया। फिर पढा। और फिर इनके बारे में, इनके करीबी रहे, छात्र रहे, दोस्त रहे, जानने-समझने वाले रहे व्यक्तियों ने जो कुछ भी लिखा, उसे भी पढा। फिर इनको मनन किया। और तब खींची रूप रेखा जो आपके सम्मुख लाने से रोक नहीं पाया।
इस देश में बेहतरीन नाटककार शेष ही कितने हैं? नाटककारों पर लिखने वाले भी शेष कितने है? और नाटककारों को जानने-समझने के लिये कितनों के पास वक्त है? ऐसे प्रश्न क्यों नहीं कौन्धते है आमजन में? खैर इससे नाटककारों या चरणदास सिद्धू जैसों को कोई मतलब भी नहीं क्योंकि ये तो बस धुनी रमाये हुए हैं, तप में लीन है। दुर्भाग्य हमारा है कि हम वंचित रह जाते हैं ऐसे दुर्लभ जीवन से, जिसके माध्यम से हम जीवन के कई सारे अनबुझे पहलुओं को जान सकते हैं, समझ सकते हैं। क्योंकि नाटककार सिर्फ नाटक मंचित नहीं करता बल्कि अपने जीवन को, अपने परिवेश को, अपने अनुभवों को या कहें एक समग्र जीवन दर्शन को कथानक में उतारकर पेश करता है। वो अभिनय करता या कराता तो है किंतु कहीं वो अपने ही जीवन के साथ खेल भी रहा होता है। कौन खेलता है अपने जीवन के साथ? आज जब मैं अपने चारों ओर भागते-दौडते-खाते-पीते- कमाते- गंवाते लोगों की भीड देखता हूं तो यही ख्याल आता है कि जी कौन रहा है? खेल कौन रहा है? जीवन काट रहें है सब। कट रहा है सबकुछ बस। खेलने के अर्थ बदल गये हैं। खैर..। मैने चरणदास जी के बारे में सुना व पढा है। फक्कड सा जीवन। किंतु ऐसी फक्कडता नहीं कि जीवन का लक्ष्य ही लुप्त हो जाये। अपने लक्ष्य के लिये तमाम बाधाओं को पार करने वाला व्यक्तित्व, अपने शौक के लिये आसमान को ज़मीन पर झुका देने वाला साहसिक जांबाज, अपनी एक अलग दुनिया बना कर चलने वाला दुनियादार इंसान...., क्या कभी मिल भी सकुंगा उनसे? क्योंकि जितना पढा-सुना है वो उनसे मिलने के लिये व्यग्र तो कर ही देता है किंतु अपनी भी बडी बेकार आदत है कि किसी के बारे में जानने-समझने के इस चक्कर में यदि कभी कहीं उसके ही विचारों के कई सारे विरोधाभास जब सामने आते हैं तो उसे कहने-बोलने से भी हिचकिचाता नहीं। कभी-कभी इस आदत के चलते सामने वाला मिलना नहीं चाहता। जबकि मिलकर मुझे बहुत कुछ और जानने-समझने को मिल सकता है जो ज्यादा असल होता है। पर..स्पष्टवादिता की प्रवृत्ति स्वभाव में प्राकृतिक रूप से जो ठहरी। कभी कभी गुडगोबर भी कर देती है। क्योंकि ज़माना औपचारिकता का है और अपने को औपचारिकता की ए बी सी डी नहीं आती। यानी हम जमाने के साथ नहीं है, यह हम जानते हैं। शायद इसीलिये बहुत पीछे हैं। वैसे इस पीछडेपन को हम स्लो-साइक्लिंग रेस मानते हैं। जिसमे जीतता कौन है? आप जानते ही हैं। खैर..डॉ.चरणदास सिद्धू के बारे में सुशीलजी से सुनकर, उनकी किताबो को पढकर उनके बारे में जो चित्र खींचा है वो वाकई दिलचस्प है और जिसे एकमुश्त पोस्ट मे ढालकर पेश नहीं किया जा सकता, सो अगली पोस्ट का इंतजार जरूर कीजियेगा।
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
4 दिन पहले
11 टिप्पणियां:
डॉ.चरणदास सिद्धू के बारे में और जानने की जिज्ञासा है, आगे इन्तजार है अगले आलेख का.
हम भी नाटक प्रेमी हैं और अब तो जिज्ञासा और बढ़ गयी है..
नवीन और ठोस विषयों से परिचय कराने कि विशेषता है आपकी |डॉ .सिद्धूजी के बारे में जानकर और जिज्ञासा बढ़ी है ,इंतजार रहेगा अगली पोस्ट का |
नाटक कभी बचपन में ज़रूर देखे थे .. कॉलेज के दीनो में खेले भी थे ... पर वक़्त के साथ साथ वो दुनिया पीछे छूट गयी ... अब नाटक और उसके बारे में ज़्यादा पढ़ने को नही मिलता .... सिधू जी के बारे में पढ़ कर और अपने माध्यम से जान कर बहुत अच्छा लगा ...
वाह....। आखिर लिख ही डाला सिंद्धू सर के ऊपर एक शब्दचित्र। पर मेरे लिए परेशानी हो गई, मैं बड़ा बेसर्ब इंसान हूँ आप तो जानते ही है। अगली पोस्ट तक का इंतजार कैसे करुँ। खैर अमिताभ जी आपने भूमिका बेहतरीन लिखी है। मुझे पसंद आई। सच पूछिए तो कुछ ही मामलों में मैं अपने आप किस्मत वाला मानता हूँ उनमें से एक ही यही है कि मैं सर से मिल सका। और दूसरी बात यही कि इनसा दूसरा कोई नही देखा। जिसको भी देखा मुखोट लगाते हुए देखा पर इन्हें नही देखा। जिस भी दिन मिलता हूँ वो दिन यादगार होता है और उस दिन पता नही कितनी ताकत आ जाती जीने के लिए , परेशानियों से लड़ने के लिए। रही उनके जीवन की बात तो वो कहते यार बहुत टाँग लिए लालकिले पर झंडे अब तो आ जाए बैशक...। इस बार जन्मदिन पर भी बोल रहे थे अपने दामाद जी से भई वो चला गया, वो चला गया .... कि मैं हूँ...। मेरी आँखो से धुधला देखने लगा था तब। और फिर कुछ देर बाद उनकी बारी थी जब उन्होंने बातों ही बातों उन लोगो की बात बताई जिन्होंने उनकी सहायता की थी। उनकी आँखो में पानी आ गया था बस टपका नही। ज्यादा लिखूँगा तो घर वाले कहने लगगे कि क्या हुआ क्यों आँशू .....। बाद में लिखूँग़ा। अगली पोस्ट में।
वैसे तो नाटक और नाटककारों के बारे मे मै ज्यादा नही जानता..सो सिद्धू जी के बारे मे पहले से पता नही था..इसलिये आपके द्वारा उनको जानना सार्थक रहा.और बहुत प्रेरक भी..धनाकांक्षा, यशेच्छा से परे स्वयं को कला के लिये खाक कर देना कितना मुश्किल काम है.मगर हर चमकते राजप्रासाद की नींव मे ऐसे ही सच्चे युग-ऋषियों के अस्थियाँ दफ़्न होती हैं..पोस्ट के अंत तक आते आते लेखक का दर्शन मे डुबकी लगाना अच्छा लगा..मगर जीने और जिंदगी काटने के बीच एक बहुत बड़ी खाई होती है..और हमारी तमाम उम्र उसी अंतर को पाटते-पाटते गुजर जाती है..
बेशक अगली पोस्ट का इंतज़ार रहेगा |किसी को जानने समझने ,उसकी सुनाने की अगर जिज्ञासा है तो विरोधाभास की आदत तो छोड़ना पड़ेगी ,जो वह कहें उन्हें सुनो ,समझो ,यदि उनसे तर्क किया या यह बतलाने की कोशिश की कि हम भी कुछ है वहीं मामला गड़बड़ा जाता है ,मुह पर विरोध करने की आवश्यकता नहीं है सुनो पसंद न आये चुप रहजाओ | तर्क की कोइ लिमिट नहीं होती है ।कवीर की बात आपको याद होगी ""पंडित मुल्ला जो कह दिया /झाडि चले हम कुछ न लिया ""
Bahut achchha lagapadhkar,agli post ka intejar.
गदगद हो गया हृदय..
पोस्ट के शब्दों ने सच के करीब ले जाकर खड़ा कर दिया है...
अगली पोस्ट का इंतज़ार रहेगा...
मीत
सर देर से आने के लिए माफ़ी चाहूंगी आपकी पोस्ट के जरिये ही सही डाक्टर चरण दास सिद्धू जी के बारे में जानने मिल रहा है आपका आभार भूमिका अच्छी लगी आगे की बातें अगली पोस्ट पढ़ कर लिखती हूँ
नाटककार चरणदास सिद्धू जी पर लिखा हुआ आलेख बेहद अच्छा लगा !
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