सोमवार, 18 जनवरी 2010

मेरी प्रिय पुस्तक में से----

जब भी कभी खालीपन का अहसास हुआ, मुझे अपनी रुचिकर किताबों ने सम्भाला। जब भी कभी मन भारी होता है मैने हमेशा किताबों की शरण ली है। किताबें मुझे ज्यादा प्रियकर इसलिये भी लगती है कि उनमे स्वार्थ नहीं होता, उनमें छल नहीं होता, कपट नहीं होता, वे जैसी भी होती हैं पूरी की पूरी समर्पित होती हैं। उसके एक एक शब्द मानों जीवन की परतें खोलते हैं। मन की उदासी, खालीपन के भाव यूं रफुचक्कर होजाते हैं कि पता ही नहीं चलता। मैं फिर से तैयार हो जाता हूं। नये सिरे से अपने को संवारने लग जाता हूं। पिछले दिनो अपने पूज्य पिताजी के काव्यखंड "रागाकाश" को पढ रहा था तो मुझे लगा कि उसमें से कुछ रचनायें अपने आदरणीयजन, बन्धुओं व मित्रों के लिये भी पोस्ट करुं। "रागाकाश" पूरा एक जीवन है। तीन खन्डों में विभाजित है यह। पहला रागात्मा, दूसरा रागानुगा और तीसरा खंड रागापरा। मैं अक्सर पढता रहता हूं, और हमेशा ही मुझे लगता है और-और पढूं। आज आपके लिये इस पुस्तक के तीनों खंडों में से एक-एक रचना प्रेषित कर रहा हूं।

"रागात्मा" से-

अब न अन्धेरे से डर और न उजाले से
न कल्पना और न यथार्थ से
अब तो स्त्री से भी डर नहीं लगता।
अब-
आस्वाद और रस
या तो तृप्त हैं या अर्थहीन।
सारी भौतिक उत्तेजनायें और तनाव
जैसे एक आध्यात्मिक शांति में डूब गये हैं।
अतृप्त आकाक्षायें,
जीवन की विभीषिकायें
ऐश्वर्य-विलास
हार-जीत
सब जैसे
एक अनकह विराम में समाहित हो गये हैं।
सारे तीव्र-मध्दम काल-प्रवाह
जैसे एक शांत समुद्र में थिर हो गये हैं।
कुछ बान्धता नहीं अब
न घर, न बाहर,
न माया, न ममता
न वर्तमान, न भविष्य।
दिशा की भ्रांति हो यह
या पारिस्थितिक विवशता
पर,
सब कुछ जैसे एक निस्तब्धता में
विलीन हो गये हैं।
अब यह सोच
कि ' अब क्या होगा?'
कितना निरर्थक है।

"रागानुगा" से-

मैं दिखा,
लजा गई अरुणाई
ऐसी कुछ चमक
सद्य: धुले चेहरे पर आई
जैसे
मन्दिर के ओस-भीगे कलश से
सो के जगी ऊषा की,
पहली-पहली किरण टकराई॥

"रागापरा" से-

मत किनारे आओ
भंवर में रस लो
उसमें चक्कर जरूर है
पर गति वहीं है।

24 टिप्‍पणियां:

रंजना ने कहा…

yah to sou take sahi kaha aapne..kitabon se achcha aur sachcha koi saathi nahi...

Prastut rachnayen bhi utkrisht hain....

कडुवासच ने कहा…

... प्रभावशाली रचना!!!!

Alpana Verma ने कहा…

'सब कुछ जैसे एक निस्तब्धता में
विलीन हो गये हैं।
अब यह सोच
कि ' अब क्या होगा?'
कितना निरर्थक है।'
-प्रस्तुत तीनो रचनाएँ उत्कृष्ट हैं.
आप के पिताजी की लिखी इन तीनो कविताओं में जीवन दर्शन दिखाई देता है.
इन कविताओं को हम तक पहुँचाया,आप के आभारी हैं.
लेख के शुरू में आप ने सच कहा है,किताबें सब से अच्छी और सच्ची साथी हैं.

डिम्पल मल्होत्रा ने कहा…

मत किनारे आओ
भंवर में रस लो
उसमें चक्कर जरूर है
पर गति वहीं है। duniya ka banwar hai shayd.esse nikal ke न अन्धेरे से डर और न उजाले से
न कल्पना और न यथार्थ से

दिगम्बर नासवा ने कहा…

पिता जी की लिखी तीनो रचनाएँ जीवन को अपने गहरे अंदाज़ से देखने की नयी दृष्टि देता है ........ जीवन के अलग अलग रंगों को अपना ही रंग दिया है इन रचनाओं ने ........

गीता के सार की तरह है रागात्मा में लिखी रचना ...... जब इंसान सब से ऊपर उठ जाता है तो "अब क्या होगा" से कुछ फ़र्क नही पढ़ता .........
नयी आशा की किरण की तरह खिलती है दूरी रचना जो रागनुगा से ली है आपने ........
गति की जो चाह रखनी है तो बीच में तो आना ही पढ़ता है ....... रंगमंच के बाहर बैठ कर खेल का आनंद नही लिया जाता ....... भूत लाजवाब है रागपरा भी .......

प्रणाम कहिएगा पिताजी को हमारा भी ...........

सुशील छौक्कर ने कहा…

वाह अमिताभ जी क्या बात है अभी कुछ एक दिन पहले एक ख्याल आया था कि अपनी प्रिय पुस्तकों में से हम जो पेंसिल से अंडरलाईन कर देते है उन्हें अपनी पोस्टों में लाऊँ पर समय की दिक्कत की वजह से बस ख्याल ख्याल ही रहा खैर बाद में....। पर आज जब हेडिंग देखी पोस्ट की तो दिल खुश हो गया और फिर जब पोस्ट के अदंर झांका तो खुशी दुगनी हो गई बाबू जी रचनाए लगाई हुई थी। और तीनों रचनाएं अपने अलग ही भाव लिए हुए है। पहली वाले तो बहुत गहरी लिखी गई है। बाबू जी की रचनाओं की यही खासियत है कि ये गहरी लिखी हुई है। शब्दों से माटी की खूशबू आती है। और जीवन की झाँकियाँ देखने को मिलती है। वैसे कई बार मुझे शब्दकोश उठाना पड़ा। और नए शब्दों की जानकारी हुई। अभी तक पूरी किताब नही पढ पाया हूँ। कुछ पेज बाकी है। और शायद फरवरी के बाद ही पढे जाऐगे जी। और हाँ बाबू जी को कहना कि एक प्रशंसक ने सलाम भेजा है।

kshama ने कहा…

In rachnaon se saajha karane ke liye bahut,bahut dhanywaad! Kitabon jaisa saathee nahee..

Urmi ने कहा…

बहुत ही सुन्दर रचना और बढ़िया प्रस्तुती! मुझे तो किताबें पढना बहुत अच्छा लगता है और मेरा तो ये मानना है कि किताब से बढ़कर अच्छा और सच्चा दोस्त कोई नहीं होता! मैं तो अपना अधिकतर समय किताब पढने में बिताती हूँ !

स्वप्न मञ्जूषा ने कहा…

बहुत सुन्दर कविता...
जीवन में एक समय शायद ऐसा ही आता है जब..राग द्वेष , प्रीत प्रेम इन सब से मनुष्य ऊपर उठ जाता है..आपके पिताश्री ने भी अपने इसी अनुभव को शब्दों से बाँध दिया ..
मन-मुग्ध हुआ है..

ज्योति सिंह ने कहा…

मत किनारे आओ
भंवर में रस लो
उसमें चक्कर जरूर है
पर गति वहीं है। bahut hi shaandar ,teeno rachnaye man ko chhoo gayi ,ek jagat amitabh aur ek aap dono ko sahitya dhrohar me mili hai ,is naam ke saath sahitya ka sambandh anivaarya sa ho gaya hai ,kuchh aesa hi anubhav ban pada .

ज्योति सिंह ने कहा…

pustak ko lekar aapke vichar behad umda hai .bahut dhyaan se lambe waqt tak aapke blog par aaj rahi har cheez dhyan se dekh rahi thi ,kai baate behad achchhi lagi.

अपूर्व ने कहा…

पुस्तकों के बारे मे आपके विचारों की शिद्दत महसूस कर सकता हूँ..और आपके अनुराग का अंदाजा लगा सकता हूँ..मैं मानता हूँ कि जिन्हे अच्छी पुस्तकों का ऐसा सनिध्य मिलता है..वे भाग्यशाली ही होते हैं..जो एक जीवन मे भी कई जीवन जी लेते हैं..बिना मृत्यु का मुँह देखे..
आपके पिताजी के बारे मे और उनके कृतित्व की विशालता के बारे मे जानना इस पोस्ट को पढ़ने की उपलब्धि रही..और इस नाते आप धन्यवाद के पात्र भी हैं..बहुत गहन और विचारयोग्य भाव भरी कविताएं
पर,
सब कुछ जैसे एक निस्तब्धता में
विलीन हो गये हैं।
अब यह सोच
कि ' अब क्या होगा?'
कितना निरर्थक है।

..कुतूहलपूर्ण इस बालसुलभ उत्सुकता की निरर्थकता का भान होना ही हो स्थितिप्रज्ञ होना है..गीता मे!!
और यह कर्मयोग..

मत किनारे आओ
भंवर में रस लो
उसमें चक्कर जरूर है
पर गति वहीं है।

..बहुत गहन जीवनदर्शन..
आपके पिताजी की मधुरस्मृतियों और ज्ञान को नमन करते हुए उनकी अगली कविताओं की प्रतीक्षा रहेगी अब से..

शोभना चौरे ने कहा…

babuji ki ragakash se uch kvitaye padhva ne ka khoob abhar .
ragakash apne aap me sapurn jeevan hai .aur jeevan ke vividh rango ko
pdhne dekhne me smjhne me divy drshti chahiye ?koshish jari hai .
adrneey babuji ko prnam .

Urmi ने कहा…

आपको और आपके परिवार को वसंत पंचमी और सरस्वती पूजन की हार्दिक शुभकामनायें!

Nipun Pandey ने कहा…

अमिताभ जी , आभारी हैं आपके कि आपने अपने पिताजी की इन अमूल्य रचनाओं को हम तक पहुचाया !
जीवन के गूढ़ दर्शन से ओतप्रोत ये पंक्तियाँ निश्चय ही बहुत सुन्दर उपहार हैं !
जल्द ही और रचनाएँ भी पढ़ाइए पिता श्री की ! इंतज़ार रहेगा !..:):)

रवि कुमार, रावतभाटा ने कहा…

उसमें चक्कर जरूर हैं...
पर गति वहीं है...

जीवन से जोड़ती रचना पंक्तियां...

BrijmohanShrivastava ने कहा…

तीनों खण्ड की रचनाये प्रथक प्रथक भाव लिये .नीति,श्रंगार और वैराग्य की तरह । पूज्य बाबूजी की रचनायें आपने पोस्ट की,बहुत अच्छा लगा

गौतम राजऋषि ने कहा…

मैं कई दिनों से आपसे ये बात कहने ही वाला था....अच्छा किया आपने इसे हम सब संग साझा करके।

..तो कविता का रोग विरासत में मिला है अमिताभ जी?

manu ने कहा…

अंकल कि लिखी तीनों रचनाएँ गहरे तक छू गयी अमिताभ जी...
पहले आपके लगाए क्रम में पढ़ा...
फिर जाने क्या सोच कर नीचे से ऊपर..उलटे क्रम में पढ़ा....
होने को कुछ ख़ास फर्क नहीं महसूस हुआ....
पर हमने ऐसे पढ़ा.......

हाँ, इन तीनों के शीर्षक को ठीक से नहीं समझ पाए हम...

prabhakar ने कहा…

apne bilkul sahi kaha hai mai apki baat se sahmat hoo

prabhakar ने कहा…

apne bilkul sahi kaha hai mai apki baat se sahmat hoo

prabhakar ने कहा…

apne bilkul sahi kaha hai mai apki baat se sahmat hoo

Compartir Experiencias ने कहा…

Hmm baat thoo sahhi hai !!!! Accha likha !!!!

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