पलको से टकरा-टकरा
आखिर लुढक ही गई
आंखों के अन्दर
और
रैटीना में फैल गई
अपने पूरे विस्तार के साथ
मेरी तस्वीर।
मैं कुछ समझ पाता कि
उसने पलक बन्द कर
निगल लिया मुझे
ह्रदय के अंतरतम तक
और बुदबुदाई
अब तुम जा सकते हो।
मैं
दुनियाई बवंडर में
उलझा
अपने दायित्व, कर्म
धर्म निभाता
लगभग बूढा हो गया,
वो कभी याद नहीं आई,
क्योकि उसे कभी
भूला ही नहीं।
फिर यह विश्वास कि
मैं तो उसके
ह्रदय में ही हूं।
सोच बुदबुदाता हूं
वाह रे समर्पण।
गुरुवार, 24 सितंबर 2009
शनिवार, 19 सितंबर 2009
"प्राणांतक सुख"
नवरात्रि की सभी को मेरी और से आत्मीय शुभकामनायें।
" हिन्दी पखवाडा चल रहा है, वैसे मेरे लिये तो हिन्दी हर क्षण रगों में बहती है, इसलिये पखवाडा चले या सालवाडा मुझे इससे कोई मतलब नहीं रहता। लिहाज़ा हिन्दी की ही एक रचना जो मुझे बेहद पसन्द है, सादर कर रहा हूं। "
अप्रतिक्रियोद्भुत
एक अहेतुकी कर्म का
अविनाशी प्रदर्शन
अग-जग में परिव्याप्त
सहज कौशल का मार्जित प्रकर
अतल गव्हरों में झंझायित
आलोडित कंदराओं का
प्रसादांत क्रन्दन
अनावरित अवतरण की
दुस्तर भूमिका
अंजुलि भर
गुम्फित वन्दन के स्वर
श्रद्धा विगलित प्रेम-पेलव
संसार का अपहरण
डूब उतरता
सहज-सिन्धु विक्षुब्ध
प्रलय जनमाता
अंतरतर कातर मन
आह..
टूटन का म्रुत्योधिक सुख
आह...
अनस्तित्व का प्राणांतक सुख।
" हिन्दी पखवाडा चल रहा है, वैसे मेरे लिये तो हिन्दी हर क्षण रगों में बहती है, इसलिये पखवाडा चले या सालवाडा मुझे इससे कोई मतलब नहीं रहता। लिहाज़ा हिन्दी की ही एक रचना जो मुझे बेहद पसन्द है, सादर कर रहा हूं। "
अप्रतिक्रियोद्भुत
एक अहेतुकी कर्म का
अविनाशी प्रदर्शन
अग-जग में परिव्याप्त
सहज कौशल का मार्जित प्रकर
अतल गव्हरों में झंझायित
आलोडित कंदराओं का
प्रसादांत क्रन्दन
अनावरित अवतरण की
दुस्तर भूमिका
अंजुलि भर
गुम्फित वन्दन के स्वर
श्रद्धा विगलित प्रेम-पेलव
संसार का अपहरण
डूब उतरता
सहज-सिन्धु विक्षुब्ध
प्रलय जनमाता
अंतरतर कातर मन
आह..
टूटन का म्रुत्योधिक सुख
आह...
अनस्तित्व का प्राणांतक सुख।
गुरुवार, 17 सितंबर 2009
पर्वत को छू पाकर बदली बरस गई।
पूरी भरने से पहले ही गगरी छलक गई
बैरिन लट गुंथने के पहले औचक उलझ गई।
माना मूल्य समर्पण का है
यह तन बस अर्पण का है
किंतु देव-पूजन से पहले
सिर का घूंघट क्यों सरका है?
पद-प्रक्षालन से पहले यह कैसी झिझक हुई
चरण पकड कर बैठ गई मैं अन्यमनस्क हुई।
बून्दों के गिरने से पहले
खुली सीप से कुछ तो कह ले
बन्धन से मोती है फिर भी
अच्छी खोटी सीप परख ले।
गिरने से पहले ही क्यों यों चकनाचूर हुई,
दरपण के सम्मोहन में मैं खुद से दूर हुई।
जीवन में बन्धन का स्वर है
मिलन-बन्ध में जीव अमर है
यम की पूजा के पहले ही
ब्रह्माराधन सर्व अजर है।
मिलने से पहले ही बावरी यों मदहोश हुई
जन्मों की उलझी गुत्थी ज्यों पल में सुलझ गई।
आओ तो मैं चांद सितारे
गोदी भर लूं सारे सारे
यही समर्पण बने विसर्जन
अनजानी पहिचान पुकारे।
जैसे सागर की सीमा लख नदिया उमग गई
जैसे पर्वत को छू पाकर बदली बरस गई।
बैरिन लट गुंथने के पहले औचक उलझ गई।
माना मूल्य समर्पण का है
यह तन बस अर्पण का है
किंतु देव-पूजन से पहले
सिर का घूंघट क्यों सरका है?
पद-प्रक्षालन से पहले यह कैसी झिझक हुई
चरण पकड कर बैठ गई मैं अन्यमनस्क हुई।
बून्दों के गिरने से पहले
खुली सीप से कुछ तो कह ले
बन्धन से मोती है फिर भी
अच्छी खोटी सीप परख ले।
गिरने से पहले ही क्यों यों चकनाचूर हुई,
दरपण के सम्मोहन में मैं खुद से दूर हुई।
जीवन में बन्धन का स्वर है
मिलन-बन्ध में जीव अमर है
यम की पूजा के पहले ही
ब्रह्माराधन सर्व अजर है।
मिलने से पहले ही बावरी यों मदहोश हुई
जन्मों की उलझी गुत्थी ज्यों पल में सुलझ गई।
आओ तो मैं चांद सितारे
गोदी भर लूं सारे सारे
यही समर्पण बने विसर्जन
अनजानी पहिचान पुकारे।
जैसे सागर की सीमा लख नदिया उमग गई
जैसे पर्वत को छू पाकर बदली बरस गई।
सोमवार, 14 सितंबर 2009
बुढिया हिन्दी
वो रोई,
नहीं..नहीं
उसे रुलाया गया।
रुलाया जाता रहा।
60 वर्ष की
बूढी के आंसू
पोछ्ने के नाम पर
देखो कितने
मज़में लगे हैं,
मेले लगे हैं,
सज़ी हैं दुकानें
और बिक रहे हैं
आंसू।
उसके आंसू
बेच कर
देखो तो कितने
महल खडे हो गये,
लोग कितने बडे हो गये,
पीठाधीश बन गये।
बावजूद
आंसू बेचे जा रहे हैं
खरीदने वाले
बन्द आंखे किये
खरीदे जा रहे हैं।
कोई माई का लाल नहीं
जो कोने में
पडी
रो रही उस बुढिया को
सम्भाले,
उसके आंसू पोछे
और कहे
जिसके बूते
मैं चला, जमा, खडा हुआ
जिसके बूते मैं
देशधारा में बहा,
जिसकी छाती से
दूध पिया,
उसे उसका मान सम्मान
पूरे-पूरे हक़ के साथ
यदि ना भी दिलवा पाऊं
किंतु उसे आजन्म
निसंकोच अपने
साथ रख,
ता-उम्र सेवा करता रहुंगा....।
अरे मां है वो
इतने से ही मान जायेगी
आंसू अपने पौछ डालेगी।
और गोद में उठा
पूरे आंगन में
दौड लगायेगी।
बस इतना ही तो चाहती है।
नहीं..नहीं
उसे रुलाया गया।
रुलाया जाता रहा।
60 वर्ष की
बूढी के आंसू
पोछ्ने के नाम पर
देखो कितने
मज़में लगे हैं,
मेले लगे हैं,
सज़ी हैं दुकानें
और बिक रहे हैं
आंसू।
उसके आंसू
बेच कर
देखो तो कितने
महल खडे हो गये,
लोग कितने बडे हो गये,
पीठाधीश बन गये।
बावजूद
आंसू बेचे जा रहे हैं
खरीदने वाले
बन्द आंखे किये
खरीदे जा रहे हैं।
कोई माई का लाल नहीं
जो कोने में
पडी
रो रही उस बुढिया को
सम्भाले,
उसके आंसू पोछे
और कहे
जिसके बूते
मैं चला, जमा, खडा हुआ
जिसके बूते मैं
देशधारा में बहा,
जिसकी छाती से
दूध पिया,
उसे उसका मान सम्मान
पूरे-पूरे हक़ के साथ
यदि ना भी दिलवा पाऊं
किंतु उसे आजन्म
निसंकोच अपने
साथ रख,
ता-उम्र सेवा करता रहुंगा....।
अरे मां है वो
इतने से ही मान जायेगी
आंसू अपने पौछ डालेगी।
और गोद में उठा
पूरे आंगन में
दौड लगायेगी।
बस इतना ही तो चाहती है।
शनिवार, 12 सितंबर 2009
सुख

मेरे चेहरे के भाव
वो खूब पढ लेती है।
उसका नन्हा दिमाग
मेरे दिमाग से
कहीं तेज चलता है।
वो मेरे अनुसार अपने
कार्य ढालती है,
मुझे क्या अच्छा लगता है
क्या नहीं.
वो बारिकी से जानती है।
यहां तक कि
मुझे भी कभी पता नहीं चलता कि
मैं "ऐसा कुछ चाह" रहा था।
थकान होती है
तो सिर के पास बैठ
अपने नन्हें, कोमल हाथों से
सहलाने लगती है।
मैं
मना करता हूं
तो सीधे कुछ किताबें उठा
पढ्ने लगती है,
मुझे दिनभर की
बातें बताती है।
और जब देखती है कि
मैं हंसा तो
झट उठ कर भाग जाती है।
या फिर
कह उठ्ती है-
पापा
चलो आपको घुमा लाऊं।
मैं पूछ्ता हूं
कहां?
तो कहती है
कहीं भी बाहर,
जैसे मार्केट-वार्केट
होटल-वोटल,
मेरे लिये कुछ
खरीद वरीद लेना
कुछ खा-वा लेंगे
और क्या।
मैं हंस देता हूं और
प्यारी सी चपत
देते हुए
कहता हूं
शैतान।
बस यही तो है
जीवन के सुख।
सोमवार, 7 सितंबर 2009
और सुबह हो गई
-तरुणाई संझा ने
निर्मोही दोपहर को
धकेलते हुए
मेरे आंगन में
प्रवेश किया
और मुझे
चांदनी सौंप
खुद धीरे से
खिसक गई।
-आसमान पे चढ
आंखे फाड कर
ढूंढ रहा है चांद,
किंतु रात के मदभरे
सन्नाटे में
नव वधु की तरह
चांदनी सकुचाते हुए
मेरे अंक में
समा गई।
-सांय-सांय करती
मेरे बंद कमरे के
दरवाजे-खिडकियों पर
लात मार
दस्तक देती
चिल्ला रही है हवा,
लौटा चांद की चांदनी।
पर स्म्रतियों की
सुरा पी चांदनी
मेरे संग नशे में
खो गई।
-स्वप्न मधुबन मे
बिछी तारों की सेज़ पे
मेरी देह से लिपटी
मखमली स्पर्श
और प्रेम के परम सुख्
का रसास्वादन
देती चांदनी,
लो समर्पित
हो गई।
-ना देह की सुध रही
ना दीन-दुनिया की,
जब पक्षी चहके और
भौर की किरण ने
दरवाजे की दरार से
लुढक कर
मेरे कमरे में प्रवेश किया,
तो चांदनी के चेहरे पर
देखो कुटील हंसी
छा गई।
-मेरे गाल पे
चूमते हुए वो उठी
धीरे से बोली
सिर्फ 'चांद' ही दागदार नहीं है,
और न सिर्फ 'चांदनी' ही
परगमनिया है,
अब तुम भौर की
किरण को
सम्भालो, ऐसा कह
वो गई।
-कुछ समझ पाता
इतने में
आंखों में समा गई
किरण,
चादर की सिलवटे मिटा
चांदनी को विदा
किया ही था कि
धम्म से पलंग पर
अब किरण
पसर गई।
-और सुबह हो गई।
निर्मोही दोपहर को
धकेलते हुए
मेरे आंगन में
प्रवेश किया
और मुझे
चांदनी सौंप
खुद धीरे से
खिसक गई।
-आसमान पे चढ
आंखे फाड कर
ढूंढ रहा है चांद,
किंतु रात के मदभरे
सन्नाटे में
नव वधु की तरह
चांदनी सकुचाते हुए
मेरे अंक में
समा गई।
-सांय-सांय करती
मेरे बंद कमरे के
दरवाजे-खिडकियों पर
लात मार
दस्तक देती
चिल्ला रही है हवा,
लौटा चांद की चांदनी।
पर स्म्रतियों की
सुरा पी चांदनी
मेरे संग नशे में
खो गई।
-स्वप्न मधुबन मे
बिछी तारों की सेज़ पे
मेरी देह से लिपटी
मखमली स्पर्श
और प्रेम के परम सुख्
का रसास्वादन
देती चांदनी,
लो समर्पित
हो गई।
-ना देह की सुध रही
ना दीन-दुनिया की,
जब पक्षी चहके और
भौर की किरण ने
दरवाजे की दरार से
लुढक कर
मेरे कमरे में प्रवेश किया,
तो चांदनी के चेहरे पर
देखो कुटील हंसी
छा गई।
-मेरे गाल पे
चूमते हुए वो उठी
धीरे से बोली
सिर्फ 'चांद' ही दागदार नहीं है,
और न सिर्फ 'चांदनी' ही
परगमनिया है,
अब तुम भौर की
किरण को
सम्भालो, ऐसा कह
वो गई।
-कुछ समझ पाता
इतने में
आंखों में समा गई
किरण,
चादर की सिलवटे मिटा
चांदनी को विदा
किया ही था कि
धम्म से पलंग पर
अब किरण
पसर गई।
-और सुबह हो गई।
गुरुवार, 3 सितंबर 2009
आग सिर्फ भस्म करती है
तुमने बडे प्रेम से
आग लगा दी,
मेरे तन में भी और
अपने तन में भी।
अब जलो...।
ये पद-प्रतिष्ठा की
प्रदक्षिणा,
खोने-पाने की
प्रतिस्पर्धा,
लूटने-खसोट्ने की
प्रलोभना,
बढती भूख का
प्रलाप,
प्राप्त प्रक्रुति का
प्रकोप,
चहूंओर सिर्फ और
सिर्फ आग का प्रमाण,
जलते रहो।
जीवन आग है,
जिसकी जितनी ऊंची
लपटें,
उसकी उतनी प्रतिभा।
जो जितना जला सके
उसका उतना प्रकाश।
जो ना जला सके
उसमे भी जलन,
वाह,
हर् कोई जल रहा,
इस दावानल मे।
आग सिर्फ
भस्म करती है,
भस्म।
चाहे जलो या जलाओ।
( ढेर सारे विचार गुत्थमगुत्था थे। मैंने उन्हें एकत्रित नहीं किया और उतार दिया। या यूं कहूं कि समय का अभाव है, और 'पोस्ट' करने की जल्दी। निश्चित रूप से बिखराव का आभास होगा। किंतु इतना तय है कि शब्दों के नेपथ्य में छुपा जीवन का गूढ् आपकी पैनी नज़रों से बचेगा नहीं।)
आग लगा दी,
मेरे तन में भी और
अपने तन में भी।
अब जलो...।
ये पद-प्रतिष्ठा की
प्रदक्षिणा,
खोने-पाने की
प्रतिस्पर्धा,
लूटने-खसोट्ने की
प्रलोभना,
बढती भूख का
प्रलाप,
प्राप्त प्रक्रुति का
प्रकोप,
चहूंओर सिर्फ और
सिर्फ आग का प्रमाण,
जलते रहो।
जीवन आग है,
जिसकी जितनी ऊंची
लपटें,
उसकी उतनी प्रतिभा।
जो जितना जला सके
उसका उतना प्रकाश।
जो ना जला सके
उसमे भी जलन,
वाह,
हर् कोई जल रहा,
इस दावानल मे।
आग सिर्फ
भस्म करती है,
भस्म।
चाहे जलो या जलाओ।
( ढेर सारे विचार गुत्थमगुत्था थे। मैंने उन्हें एकत्रित नहीं किया और उतार दिया। या यूं कहूं कि समय का अभाव है, और 'पोस्ट' करने की जल्दी। निश्चित रूप से बिखराव का आभास होगा। किंतु इतना तय है कि शब्दों के नेपथ्य में छुपा जीवन का गूढ् आपकी पैनी नज़रों से बचेगा नहीं।)
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