1-
वो
मेरी चिंता में
दुबली हो चली है।
किसी अज्ञात भय से
घिरी दिनरात वो
मेरे कुशल क्षेम के
लिये अपने भगवान से
मनौतियां मांगती रहती है।
और फोन पर
मेरे हाल चाल जान
उसका अपने भगवान पर
विश्वास और द्रढ हो जाता है।
वो कुछ और मनौतियां
व्रत जैसे उपक्रम कर
मेरी स्वस्थ कामना मे रत हो जाती है।
उसका
प्रतिदिन होता है
कुछ इसी तरह......
2-
मैं
अपनी चिंता में
बहुत कुछ भूल चला हूं।
पद प्रतिष्ठा के फेरे में
दिनरात उठापटक
इसका-उसका करता
रहता हूं।
अपने दमकते
आभामंडल को अपनी
जीत मान
इतराता फिरता हूं।
उसके फोन मेरे काम
मे अड्चन डालते हैं,
मै ठीक हूं इसका टेप लगा
व्यस्त हो जाता हूं।
मेरा
प्रतिदिन होता है
कुछ इसी तरह.....
3-
अफसोस
आखिर क्युं नही
समझ पाते
हम बेटे,
अपने पीछे की
उस अद्रष्य शक्ति को
जो उनकी तमाम हार को
जीत मे तब्दिल कर
उन्हें इतराने का
मौका देती रहती है.......
ख़ास दिन …
3 दिन पहले
18 टिप्पणियां:
अपने दमकते
आभामंडल को अपनी
जीत मान
इतराता फिरता हूं।
tab bhi vo ashash hi degi
ma ke liye asi bhavna rkhna unko samman dene vale aapjaise birle hi hote hai.
kuch log vykt kar dete hai kuch log vykt nhi kar pate .maa bete ke abujh rishte ko rekhankit karti sundar kvita.
तीनो द्रश्यो में कितनी सहज भावनाओं का अंतर लिख दिया है आपने......... जवान होते हुवे समझ नही पाते उस अंतर को....... उस प्रेम के एहसास को और बस अपनी प्रतिष्ठा में भुला देते हैं वो कोमल और सहज प्यार........... सत्य के बहूत ही पास से लिखा है इस रचना को आपने अमिताभ जी....... शुक्रिया
अजीब इत्तेफाक है। सच कहीं कुछ है जो आपके संग संग चलता है। और आपकी चिंता करता है। बहुत गहरी बात सादे शब्दों में कह दी। कई लाइनें तो इतनी खूबसूरत लिखी है कि बस दिल खुश हो गया।
वो
मेरी चिंता में
दुबली हो चली है।
............
अपने दमकते
आभामंडल को अपनी
जीत मान
इतराता फिरता हूं।
.............
अद्भुत लिखा है जी।
अपने दमकते
आभामंडल को अपनी
जीत मान
इतराता फिरता हूं।
बहुत ही सुन्दर और सहज अनुभुति की सुक्ष्म अभिवयक्ति क्या कहने ..................पुरी कविता मे ऐसी अभिव्याक्तियाँ भरी पडी है .
... sundar rachanaayen !!!!
Namaskaar bade bhai,
aapki in poems ke baare main kuch nahi kahoonga....
...bas fir se aankhein nam kar gayi,,,
abhi to ise khumar main dooba hoon..
...phir aata hoon !
P.S. : Apni poem ke start main "Vedhanik Chetavani" laga lete? ki isko padhan aankhon ke liye haanikark ho sakta hai...
BAHUT KHOOB !!!!
उसके फोन मेरे काम
मे अड्चन डालते हैं,
मै ठीक हूं इसका टेप लगा
व्यस्त हो जाता हूं।
एक गहरी सच्चाई से रूबरू करती पंक्तियाँ .....!!
हम-आप जैसे हर बेटे का कटु-सत्य
....और कितनी खूबसूरती से उकेर दिया आपने इस सच को कि कुछ बेधता-सा अंदर तक उतरता चला गया।
उसके फोन मेरे काम
मे अड्चन डालते हैं,
मै ठीक हूं इसका टेप लगा
व्यस्त हो जाता हूं।
एक गहरी सच्चाई से रूबरू करती पंक्तियाँ .....!!
हर एक पंक्तियाँ आपने इतनी खूबसूरती से लिखा है कि कहने के लिए अल्फाज़ कम पर गए !बहुत सुंदर एहसास और दिल कि गहराई से लिखी हुई आपकी ये रचना मुझे बहुत अच्छी लगी!
मन में उतर जाने वाली रचना
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श्री युक्तेश्वर गिरि के चार युग
कितना यांत्रिक हो गया है जीवन....भावनाओं की जगह भौतिक जरूरतों ने ले ली है....dusri कविता में भाव स्पष्ट हैं.
-तीसरी कविता को समझने में थोडा समय लगा.
-आप की कवितायेँ सच के नज़दीक कहीं न कहीं एक दार्शनिक भाव समाये हुए होती हैं.
कवितायेँ सक्षम हैं यह बताने में ki- ..किस तरह भावनाओं में तीन पड़ाव पार किये!
बच्चे उम्र में कितने ही बड़े क्यों न हो जाएँ माँ बाप को वे हमेशा बच्चे ही रहते है =उनके द्वारा की जाने वाली हमारी ,अनावश्यक चिंता की हम हंसी उड़ते है /दी वेडनेसडे फिल्म में यही तो कहा है आज के माहौल में घर से बहार निकलते ही हमारे सुरक्षित रहने की चिंता घर वालों सताने लगती है -आपने सही कहा हमें उस चिंता का सम्मान करना चाहिए और हर संभव उन्हें खुश रहने का मौका देते रहना चाहिए
गम्भीर चिंतन।
सुंदर अंकन।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
कितना बडा सच...कितनी सहजता से स्वीकारा है आपने...
'माता-पिता के श्रम और उनकी चिंता को न समझ पानेवाले बेटे व्यस्त चाहे जितने हों, नाकारा ही हैं!' उम्दा बात कही है आपने. कविता की तीसरी कड़ी तक आते-आते मन प्रसन्न हो गया. बधाई स्वीकार करें. आ.
उसके फोन मेरे काम
मे अड्चन डालते हैं,
मै ठीक हूं इसका टेप लगा
व्यस्त हो जाता हूं।
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बहुत खूब --- सुन्दर एहसास
बहुत सुन्दर भाव
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