बुधवार, 21 जनवरी 2009

सुप्त ज्वालामुखी



समय ओर समाज की

परतो में

दबा प्रेम

मज़बूरी की कार्बनयुक्त

काली चट्टानों

के बीच कराहता है।

किन्तु उसके

कराहने की आवाज़

प्रेम के फिर से प्रस्फुटित

होने के लिए

कोई सूराख

बना नहीं पाती।

आंसुओ का लावा

पिघल कर

अन्दर ही अन्दर

सूखता जाता है।

जम जाती है

स्मृतियों की गंधक।

जिम्मेदारिया दायित्व

ओर सांसारिक बन्धनों

के बीच खडा हुआ

ये पर्वत

अब कभी ज्वालामुखी नहीं

बन सकता ,

क्योकि

इसे सुप्त कर दिया गया है।

चुपचाप

इस जगत में सड़ने के लिए।

5 टिप्‍पणियां:

सुधीर महाजन ने कहा…

Dafan hai jeewashm sneh ke manas me,
chitkar ke kampan se srajit hota raha ek sudhir.....ek asru ki bund rup me..!

बेनामी ने कहा…

jvalamukhi jab foot jayega tab? sach me aapki kavita me sochne samjhne ki jo kalpna he vo aprmpaar he

बेनामी ने कहा…

jindgi me pyar ki yahi aoukaat hoti he..sadne ke liye samaz use chhod deta he

सुशील छौक्कर ने कहा…

एक सच्ची तस्वीर बना दी आपने। आप प्रतीकों का बहुत ही कुशलता से प्रयोग करते है। कुछ हमें भी सीखा दीजिए जी। हर लाइन बहुत कुछ कहते हुए अपनी ओर खींचती है।

वाणी गीत ने कहा…

सुप्त ज्वालामुखी की पीडा को शब्दों में खूब अभिव्यक्त किया है ..!!