मंगलवार, 21 जून 2011

इस यात्रा का अंत नहीं


यात्रा कभी समाप्त नहीं होती है। अनवरत होना, होते रहना उसका धर्म है। पूरे जीवन में ढेर सारे पडाव आते हैं, हम रुकते हैं, चलते हैं, रुकते हैं फिर चलते हैं...। यानी एक अनंत यात्रा का नाम है जीवन। जिस मृत्यु को हम जीवन का अंत समझ बैठे हैं वह नाममात्र का एक पडाव है। यह जो समझ बैठना होता है न वही हमें अपनी यात्रा का आनंद नहीं लेने देता, सुख नहीं भोगने देता, और न ही यह जानने देता है कि आखिर हम हैं क्या चीज? करीब दो माह पहले मुझे डॉ. पीयुष श्रीवास्तव द्वारा लिखित पुस्तक 'अनंत यात्रा, धर्म का विज्ञान' प्राप्त हुई थी। मैने दो बार उसे पढी। पढने का मतलब उसमें खो गया था, विचारों ने द्वन्द मचाना शुरू किया था कि उन्हें शब्द्ब दिये जायें और पुस्तक की समीक्षा की जाये, किंतु समय ने मुझे अपने दूसरे कार्यों में उलझाये रखा। आज उन विचारों को पुनः एकत्र कर रहा हूं..यानी तीबारा पुस्तक का अध्ययन किया और लिखने बैठा हूं। समीक्षा के लिये अधीरता क्यों है? यह प्रश्न भी मेरे सामने था, और समीक्षा कर भी दी जाये तो वो कहां तक सार्थक होगी जबकि मेरे ब्लॉग पर अब ज्यादा पाठक नहीं है? मैं तो चाहता यह हूं कि इस पुस्तक का अध्ययन हर कोई करे, क्योंकि यह जरूरी है.., किंतु जब पाठक कम हैं तब क्या मेरी चाहत का अर्थ रहेगा? खैर..इसका मतलब यह भी नहीं कि एक बेहतर पुस्तक पर अपने विचार लिखे ही न जाये। है न।
'अनंत यात्रा, धर्म का विज्ञान' किसी मजहब, किसी धर्म विशेष या किसी संप्रदाय से ताल्लुक नहीं रखती। यह न ही कोई संदेश देती है, न ही कोई अपना दर्शन व्यक्त करती है। यह सिर्फ वैज्ञानिक आधार पर जीवन और हमारे तपस्वियों के शोध, उनके ज्ञान को, उनके विज्ञान को प्रकट करती है। जो जैसा है, जैसा होना चाहिये, जो होता है, क्यों होता है आदि को ठीक वैसे ही डॉ.पीयुष ने पुस्तक में उतारा है जैसे कोई वैज्ञानिक अपना अविष्कार करता है। अविष्कार के लिये जिन साधनों की आवश्यकता हुई डा. पीयुष ने उनका इस्तमाल किया और तार्किक आकार देते हुए, बेहद, बेहद सरल हिन्दी भाषा में उसे व्यक्त किया..सीधा-सपाट किंतु गहरा..। भारतवासी अपनी विरासत खो रहे हैं, अपने महान तपस्वियों, ऋषि-मुनियों के अध्ययन को नज़रअंदाज़ किया जा रहा है, जबकि वही तमाम शोध उन आधुनिक वैज्ञानिकों ने, जिनका नाम आज सायंस में विख्यात है, हमारे ऋषि-मुनियों के अध्ययन के बल पर किया जिसे हम नया और अद्भुत मानते हैं। यह हमारी बेचारगी है कि हमने हमारी विरासत को श्रेय नहीं दिया। अभी भी बिगडा कुछ नहीं है। इसी बात का जीता जागता उदाहरण है यह डॉ. पीयुष का लेखन।
बहरहाल, भारतीय वेद ग्रंथों की महिमा सिर्फ धार्मिक ही नहीं थी बल्कि वैज्ञानिक थी। अगर 'जगत माया है,' 'जो दिखाई पडता है, वह सत्य नहीं है,' 'सत्य अज्ञेय है,' 'पत्थरों में भी प्राण होते हैं' जैसे वाक्य आपको महज धार्मिक बखान लगते हों तो कृपया अपने इस लगने को बदल दीजिये क्योंकि वह वैज्ञानिक और शोधित हैं। चाहे अल्बर्ट आइंस्टिन हो या नील्स बोर, या फिर हाइजेनबर्ग, डार्विन, मेंडल, स्टीफन हॉकिंग, किरलियन हों तमाम वैज्ञानिकों ने अपने प्रयोग में उपरोक्त बातों को प्रमाणित किया है, कर रहे हैं। बस यही सब तो है इस पुस्तक में। कौन क्या कर रहा है, किसने क्या किया, और इस बृह्मांड में आखिर चल क्या रहा है, हमारा जीवन और हमारा दिमाग, उसकी दुविधायें हों या सुख-दुख की परिकल्पना..सब कुछ समाहित है इस पुस्तक में और वह सिर्फ और सिर्फ वैज्ञानिक आधार पर। सच कहूं..मैने अब तक ऐसी पुस्तक का अध्ययन नहीं किया था, कई-कई सारी पुस्तके पढी, धर्म की, दर्शन की, दीन-दुनिया की, समाज की देश की..साहित्य हो या राजनीतिक हो, शोध हो या समीक्षायें हों, आलोचनात्मक हो या समालोचात्मक सब तरह की पुस्तके मेरे पढने में आई हैं किंतु 'अनंत यात्रा, धर्म का विज्ञान' इसलिये विलग है क्योंकि यह खुद का कुछ बखान नहीं करती, जो है वही सामने रखती है।
अगर सूर्य के सात घोडों की बात हो या विज्ञान के सात रंगों की बात, चन्द्रमा की 27 पत्नियों की बात हो या चन्द्रमा के 27 नक्षत्रों की बात..हमने सिर्फ शब्दों पर ध्यान दिया और किसी को नीरा धार्मिक मान लिया किसी को विज्ञान..वस्तुतः सबकुछ अपनी बात कहने और उन्हें शब्द देने की कोशिश रही, जिसे हमने अपने अन्दाज में स्वीकार लिया। डॉ.पीयुष ने बेहद सरलता से इस ओर इंगित किया है। धर्म और विज्ञान की परिभाषा के जरिये किसी सच को दर्शाने की कोशिश की है। धर्म यानी किसी व्यक्ति या वस्तु में रहने वाली मूल वृत्ति, प्रकृति, स्वभाव, मूल गुण, किसी जाति, वर्ग पद आदि के लिये निश्चित किया हुआ कार्य या व्यवहार और विज्ञान माने किसी विषय के सिद्धांतों का विशेष रूप से विवेचित ज्ञान, क्रमबद्ध और व्यवस्थित ज्ञान, जिसे प्रमाणित भी किया जा सके। इसका उदाहरण बताया गया है कि महाभारत और श्रीमद भगवद गीता में जहां एक ही व्यक्ति के लिये अलग-अलग देश, काल, परिस्थितियों में अलग अलग धर्म की बात कही गई है, यथा स्वधर्म, क्षत्रीय धर्म, कुल धर्म, राज धर्म, मानव धर्म आदि। यानी हम कह सकते हैं कि एक ही व्यक्ति के अलग अलग देश काल, परिस्थितियों में अलग अलग धर्म होंगे। वहीं दूसरी ओर हम देखते हैं कि विज्ञान विवेचित, क्रमबद्ध और प्रमाणित ज्ञान है। सामान्य रूप से धर्म को विश्वास आधारित माना जाता है, हर बात मानने के लिये कहा जाता है, मानने से विश्वास उत्पन्न होता है, वस्तुतः हम विश्वास उसी चीज का करते हैं जो हम नहीं जानते, जो जानते हैं उस पर हम यह नहीं कहते कि हम विश्वास करते हैं, क्योंकि वह हम जानते ही हैं। डॉ.पीयुष ने पुस्तक में बहुत सी बातों को वर्णन किया है जो गले उतरती है। विश्वास और अन्धविश्वास में कोई अंतर ब्भी नहीं है, तो कुछ लोग अविश्वास पर विश्वास करने लगते हैं, जबकि अविश्वास भी शीर्षासन करता हुआ विश्वास ही है। अब आप इस पर अपना तर्क दे सकते हैं, किंतु उसके पहले आपको यह पुस्तक पढनी होगी क्योंकि आप जो कुछ भी सोच रहे हैं, तर्क करना चाहते हैं वो सबकुछ इसमें जवाबी तौर पर मिलेगा। पुस्तक में कई वाक्य हैं जिन्हें एक नज़र में पढने से दिमाग उसे काटने या फिजुल का मानते हुए तर्क देने लगता है, मगर जैसे ही आगे पढना होता है हमे हमारे जवाब खुद ब खुद मिलते जाते हैं। अब यदि आपने इस पुस्तक में पढा कि ' हमारी आयु नहीं, सांसे तय होती है" या "वास्तविकता, वास्तविक नहीं," तो पुस्तक आपको वैज्ञानिक, प्रमाणित आधार पर जवाब भी देगी।
बहुत सी बातों का जिक्र मैं करना चाहता हूं किंतु चूंकि ब्लॉग पर बडा आलेख जैसा कुछ अधिक पढ सकने की पाठकों की आदत नहीं होती, इसलिये संक्षिप्त में यही कि 'अनंत यात्रा, धर्म का विज्ञान" इस जीवन, जगत, बृह्मांड और होने वाली क्रिया-प्रतिक्रियाओं का बखूब वैज्ञानिक दर्शन है जिसे पढा ही नहीं बल्कि समझा और जानना भी चाहिये। धन्यवाद दूंगा मैं डॉ.पीयुष श्रीवास्तव को जिन्होंने मुझे यह पुस्तक प्रेषित की, और पुस्तक ने मेरी बहुत सी सोच को पूर्णता की ओर जाने में मदद की। निश्चित रूप से मेरे पाठक इसे पाने की चाह रखेंगे तो उनके लिये यह लिखना जरूरी समझता हूं कि वे" श्यामल प्रकाशन, 38-दुर्गानगर, रीवा, म.प्र. के पते पर सम्पर्क कर सकते हैं।

बुधवार, 15 जून 2011

हम-तुम-सब



कंधे पर आ गया है
ढो रहे से लगते हैं।
है इसलिये बना हुआ है,
मगर जिन्दा लाश की तरह
वेंटीलेटर पर पडा।

न कोई रोमांच
न ही उत्साह,
न मिलने-जुलने की वो
मीठी सी तडप,
मानों खून ठंडा हो गया है,
दुनियाई गरमी
'उसके' सारे धर्मों को
जला चुकी है।

सच तो यह है कि
अब वो बात नहीं रही तुममे,
या उस बात को कहीं कैद कर
दफन करने की कोशिश है।
हां, तुम्हारी आंखों में
आधुनिक जगत का
कलात्मक काजल है,
खूबसूरत है मगर
जिसमे मेरा देहाती
गांवठी-गंवार सा मन
प्रतिबिम्बित नहीं होता।

बातें हैं, खूब सारी
मगर जो मन को छू ले
ठंडी सी बयार से
रोम रोम रोमांचित कर दे
वह विलक्षणता धूमिल हो गई है।
न इधर, न उधर
दोनों तरफ से जमी हुई काई
फिसलन पैदा कर चुकी है।
और जो असल में
होनी चाहिये वो फसल
फासलों के बीच सूख कर
जमींदोज़ होने लगी है।

फिर भी
बेहतर लगता है और और ढोने में
सुकून मिलता है शायद,
क्योंकि इसके आदी होने लगे हैं हम-तुम-सब।