गुरुवार, 31 दिसंबर 2009

नए साल का सूरज

चलिए मै भी
मना लेता हूँ,
या यूं कहू
मान लेता हूँ
इस नव वर्ष को|

वैसे तो
रोज़ ही
उगता है अलसाते हुए
और किसी
मजदूर की तरह
दिनभर थक कर चूर
शाम होते होते
ढह जाता है वो,
अब खुमारी में
डुबो को कहा दीखता है
नए साल का सूरज?

शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

राजनीति का त्रिफला

सरकार सोई या बीमार नहीं है,
वो जाग रही है।
उसने तो
सत्ता, नोट और बाहुबल के
त्रिफला चूर्ण से
अपना हाजमा सुधार रखा है।
वो पचा लेती है
तिल-तिल कर मर रहे
भूखे लोगों का दर्द।
वो देखती है
बिल्कुल करीब से
महंगाई के इस दौर में
गरीब का आटा गिला होते।
आंकडे एकत्र करती है
और
संसद में पेश करती है कि
आज कितने किसानों ने
खुद्कुशी की।
वो अनुसन्धान में रत है
कि आखिर
बेरोजगारी से कितने परिवार
तबाह होते हैं या
कितने युवा काम की तलाश में
उसके किसी मोर्चे में,
किसी आन्दोलन में
चन्द पैसों के लिये
मर भी सकते हैं।
वो अध्ययन करती है
कि ऐसे कौनसे मुद्दे हो सकते हैं
जो प्रजा के मर्म पर
प्रहार कर नाजुक भावनाओं को
तहस-नहस कर सके।
वो परखती है कि
महंगाई के बावज़ूद
आम आदमी
कैसे जिन्दा रह लेता है?
वो अपने साथ
अपने परिजनों को भी
मुफ्त हवाई यात्रा करा कर
देश में फैली अस्थिरता के
दर्शन कराती है।
सच में
सरकार सोई नहीं है।
उसे चिंता है देश की।
सोई तो प्रजा है
जिसे कुछ भान भी नहीं कि
देश चलता कैसे है?
धन स्वीस बैकों में पहुचता कैसे है?
कैसे नेता बनते ही
धनवान बना जा सकता है?
और कैसे
आदमी को उल्लू
बनाया जाता है?
उसने बडी लगन से
वैज्ञानिक अविष्कार किया है कि
हवा के ज्यादा दबाव में
कैसे विकल्पहीनता
पैदा की जा सकती है?
सचमुच
राजनीति का त्रिफला
बहुत् फलता है।

गुरुवार, 24 दिसंबर 2009

कुपोषण

रीढ से चिपके
पिचके पेट लिये,
कंकाल हो गये
चमडी चढे शरीर वाले
इन बच्चों की
आंखों के आंसू भी
सूख कर
गीजड बन चुके हैं,
जिन पर भिनभिनाती
मक्खियों को तो उनका
भोजन मिल जाता है
किंतु
भूख की आग में
दहन हो रहे
इन नन्हे भविष्यों को
एक दाना तक
मुहाल नहीं है।
इन्हें मिलता है
अनाज़ की जगह आश्वासन,
पानी की जगह प्यास
और
कभी न पूरी हो पाने वाली
कमबख्त आस
कि
21 वीं सदी का भारत
उन्हे मुक्त कर देगा
कुपोषण से।

मगर धन्य है
इस कुपोषण का भी
शोषण जारी है।

ये जन्मे ही शायद इसीलिये हैं।
क्योंकि
इन्हीं की बदौलत
लच्छेदार भाषणों में
उलझा कर
जिन्दा रह सकते हैं नेता,

इनकी तस्वीरें निकाल
दुनियाभर में प्रसारित कर
पा सकता है
कोई फोटोग्राफर पुरस्कार।

इनकी दुर्दशा का
ब्योरा लिख
मर्म को हिला कर
बेस्ट रिपोर्टिंग का हक़दार
बन सकता है पत्रकार।

दुसरी ओर
हमारी सरकार...
फिक़्रमन्द है।

खबर है
कसाब पर करोडों खर्च
अफज़ल को शाही बिरयानी.......।

सोमवार, 21 दिसंबर 2009

विरह

अमूमन
प्रेम की समिधायें
विरह के अग्निकुंड में
अर्पित होते देखी हैं।

सदियां बीत गई
कभी किसी अग्निदेव को
प्रकट होते नहीं देखा,
न ही देखा
प्रेम का यौवन लौटते हुए,
न उसे किसी वरदान से
दमकते हुए।

हां, देखा तो बस
'स्वाहा' का उच्चारण करते हुए
निच्छल हृदयों को
'स्वाहा' होते हुए।

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009

कांक्रीट क्रांति

यादों ने जहां जन्म लिया
वह तीर्थ स्थल
कांक्रीट क्रांति में
शहीद हो चुका है।
किंतु मस्तिष्क के
किसी
कोने में
धुन्धलाती सी
तस्वीर है,
जिसे मैं चाह कर भी
कागज़ पर नहीं
उकेर सकता।

कैसे उकेरुंगा?

क्या
कडकडाती
ठिठुरती वह रात,
शहर के बाहर की
सुनसान
अन्धेरे में डूबी
काली स्याह सडक
पर उसका मिलना,
धडकते दिल की
आवाज़ का
लगभग सर्द हो चुकी
नासिका से निकलती
गर्म सांस के साथ
मिलकर व्यक्त होना
किसी कागज़ पर
चित्र रूप में
छ्प सकता है?

क्या
सन्नाटे में खोई
सडक पर
अंजानी मंज़िल की ओर
दौडती मेरी
एलएमएल टी 5
स्कूटर पर
किसी अलाव का अहसास
देता उसका साथ,
रेखांकन हो
ड्रांइंग बुक में
समा सकता है?

क्या
सडक के आसपास बने
डरावने लगते
खेत की अनजानी सी
पगडंडी पर
स्कूटर घुसा देना
और किसी
सूखी नहर के बीच
जाकर उस बर्फ सी
रात में
प्रेम का इज़हार करने
पथरीली जगह ढूंढ्ना
कोई पेंसिल की नोंक
व्यक्त कर सकती है?

क्या
रात में दिखाई दे रहे
वे सारे काले
भयावह पेड
जो किसी भूत की
आकृति का
आभास देते हैं
और जिनसे
डर कर मेरे
अन्दर समाने की
उसकी बाल-चंचल चेष्ठा,
या
कहीं दूर
किसी गांव से आ रही
हवा के साथ
हिलौरे खाती
तूतक तूतक तूतिया......जैसे
फिल्मी गीत की
आवाज़ का
उस क्षण को
रसीला बना देने के बावज़ूद
सर्द रात से बचने
न सोने, सुबह जल्दी होने
जैसी उस अज़ीब सी
बैचेनभरी स्थिति को
कौन चित्रकार
तूलिका दे सकता है?

क्या
सूरज के जागते ही
ठंड से
जम चुके दो शरीर का
हडबडा के उठना
और यह पाना कि
हम कहां, किधर, कैसे
इस अज्ञात स्थान पर
आ बैठे,
और बस अब जल्दी
भाग चलो
जैसी मानसिकता में
प्रेम का ना तो कोई
इजहार कर पाना
ना ही कोई बात करना
बस मुस्कुरा कर
रह जाना
कभी पोट्रेट की
शक़्ल ले सकता है?

नहीं, बिल्कुल नहीं
वो तो ह्रुदय की
शीराओं में समा सकता है
या फिर
शरीर के तंतुओं
नसों में दौड
लगा सकता है।
ज्यादा है तो उस
स्थान पर ले
जा सकता है जहां
सुनहरी याद का जन्म हुआ था।
पर हाय रे विकास का दौर
मेरी ऐसी कितनी ही
यादों को लील गया।
खेत-खलीहान
गांव के गांव को
उजाड गया।
उसने वो पावन
बयार को भी
अपने वातानुकूलित यंत्र में
कैद कर लिया जो
बह कर नव-सृजन
किया करती थी,
हमें पवित्र
बनाया करती थी
आज सबकुछ नष्ट हो गया
पश्चीम का दानव
पूर्व की इज्जत को
हडप गया।
और मेरा तीर्थ स्थल
कांक्रीट क्रांति में
शहीद हो गया।

शनिवार, 12 दिसंबर 2009

'कीबोर्ड के खटरागी' से मुलाकात


आज का ही तो दिन था, कुर्ला रेलवे स्टेशन के बाहर 'नुक्कड' पर जब 'कीबोर्ड के खटरागी' से मुलाकात हुई तो यकीन मानिये ऐसा लगा ही नहीं कि पहली बार किसी व्यक्ति से मिल रहा हूं। सूचना क्रांति के इस दौर की तारीफ तो करनी ही होगी कि उसने बगैर मिले लोगों को आपस में मिला दिया है। दुनिया को बहुत छोटा कर दिया है। औसतन कद-काठी, गले में टंगा चश्मा, कमर में बान्ध रखा बैग, अपनत्व की मुस्कान और मिलनसार व्यक्तित्व की ऊर्जा लिये दमकता चेहरा मेरी आंखों में आज भी कैद है। कैद है कानों में खनकती स्नेहिल आवाज़ और मिलते ही प्रस्फुटित हुए शब्द ' जैसा फोटो में दिखते हो वैसे ही लगते हो', कुछ देर तो मुझे लगा कि सचमुच फोटो और प्रत्यक्ष दिखने में बहुत अंतर होता है। अमूमन तस्वीरें हक़ीक़त बयान नहीं करती, किंतु मुझे अच्छा लगा कि मेरी तस्वीर हक़ीक़त में भी मेरी ही है। खैर.. 'तेताले' से बाहर निकल मुम्बई आए इस इंसान से मैं मिलने का इच्छुक तो था ही, इसके पीछे मुख्य कारण यह भी था कि इनकी रचनाधर्मिता के साथ- साथ 'पिताजी' नामक ब्लोग से ये अंतर्मन की जो भावनाये प्रसारित करते रहे हैं वो दिल को छूने वाली रही हैं। मैने जब ब्लोग की शुरुआत की थी तो यकीनन यह कतई नहीं सोचा था कि लोग जुडेंगे जो मित्र भी, आदरणीय भी बनते जायेंगे। ठीक है, फोन पर या चेट पर या फिर ब्लोग के माध्यम से ही जुडना होगा, किंतु प्रत्यक्ष भेंट के बारे में सोचना अपने बहुत कम प्रतिशत के साथ मस्तिष्क में था। दरअसल, होता यह है कि साहित्य के इस दौर में या यूं कहें बौद्धिक बाज़ार में लोगों का मन मस्तिष्क पता नहीं किस 'ईगो' से घिरा होता है जो बडे छोटे जैसे मनोभाव से पीडित रहते हैं और भेद कर मिलन जैसी आनन्द की अनुभूति से दूर रह जाते हैं। इस तथ्य को भी उनके आने-मिलने और बाद में 'ब्लोगर्स मीट' के सफल आयोजन ने तोड दिया। ब्लोग और ब्लोगर्स सचमुच अनोखे हैं। मुझे उनके मिलने और मिलते रह कर सबको जोडने की यह फितरत अप्रत्याक्षित तौर पर एक ऐसी मुहिम लगी जो अब तक 'ब्लोग वाणी' या 'चिट्ठा चर्चा' जैसे मंच निभाते आ रहे हैं। मगर ये मंच तो ब्लोग्स को एक सूत्र में पिरो रहे हैं, इससे दो कदम आगे इस व्यक्ति ने भौतिक, मानसिक रूप से सेतु बनने का जिम्मा उठाया और ब्लोग्स के साथ साथ ब्लोगर्स को एक धागे में बुनने का कार्य प्रारम्भ किया। मानो फाह्यान का आधुनिक अवतार हो या व्हेन सांग की आत्मा ने इस युग में पुनर्जन्म ले लिया हो, जो न केवल लोगों को जोड रहा है बल्कि मित्रता की नई दिशाएं तैयार कर उसका बखूबी चित्रण भी कर रहा है। दिलचस्प यह कि इसका कोई दम्भ भी नहीं। बस एक मुहिम और मिलते जा रहे ब्लोगर्स का रैला। हंसता हुआ, हाथ मिलाता हुआ यह 'कीबोर्ड का खटरागी' सचमुच एक नई दुनिया बना रहा है। इस दुनिया के बाशिन्दे बनने और बने रहने की अज़ीब सी खुशी है मुझे। यह खुशी ' अविनाशी' है। इच्छा है यह खुशी बिखरती रहे, ब्लोगजगत में महकती रहे। हम सब आपस में कभी न कभी मिलते-जुलते रहें, फुनियाते रहें, चेटियाते रहे, बतियाते रहें, लिखते रहे और पढते रहें, बुद्धि और स्नेह से मिलकर बन रही चाश्नी से नहाते रहे, साहित्य को अपने अंतरतम तक महसूस करते रहें।
हां, यह सच है कि हमारी मुलाकात 5 दिसम्बर को हुई थी, वह भी दोपहर 2 बजकर 10 मिनट से लेकर शाम 4 बजकर 5 मिनट तक। आज 12 दिसम्बर है। इतने दिनों बाद मुलाकात के सन्दर्भ में पोस्ट डालने का एक कारण भी था। मैं चाहता था अविनाश वाचस्पति सकुशल अपनी यात्रा सम्पन्न कर लें. इस यात्रा के दौरान होने वाले घटनाक्रम भी सकुशल सम्पन्न हों, परिणाम बेहद सुखद रूप से सामने आये, मिलनेवाले तमाम साथी अपनी अपनी रिपोर्ट पोस्ट कर दें और सबकुछ हुआ भी ऐसा ही। अबसे ऐसा ही होता रहे। आमीन।