शनिवार, 16 मई 2020

जित देखा तित पाया जगत महाबड़ों

मेरे चारो ओर फैले हैं
सन्त, महात्मा, साधु
संन्यासी, बाबा, बुद्ध ,ज्ञानी,महाज्ञानी आदि इत्यादि।
जीने की सीख और ढेर सारी बौद्धिक बातों से भरे प्रवचनमुखी।
दिखावे में परमहंस की तरह 
किन्तु न सरल हैं और न ही सहज।
जिन्हें भी छूना चाहा वो कड़ा
जिसमें भी बहना चाहा वो सूखी नदी
जिसमें डूबना चाहा वो गहरे अँधेरे बिनपानी कुएं सा।
सब के सब स्टिरियोस्कोपी की तरह
थ्री डी भ्रम पैदा करने वाली फिल्में हैं
जिनका सत्य एक सख्त, सपाट और काली दीवार भर है।
जरा जरा सी बात पर उखड़ना
जरा जरा से सत्य पर बिखरना,
जरा जरा से लिखे पर प्रतिक्रिया
सब जरा जरा से किन्तु
स्वयं को सिद्ध पुरुष या
सबकुछ जान समझने वाले नेस्त्रादमस साबित करने व करते रहने की होड़ में लथपथ।
मुझे लगता है अब इस ठिकाने कोई बच्चा नहीं रहा
सब बड़े जन्म ले रहे हैं।
【जित देखा तित पाया जगत महाबड़ों】

न कभी होगा

जबकि इस धरती पर
तमाम मुद्दे आदमी को
रुला-हंसा और जिला-मरा रहे हैं
आदमी इसी सबको अपना
जीवन मानकर धन्य धन्य हो रहा है
ठीक इसी वक्त
अंतरिक्ष में उसका भगवान
उल्कापिंड पर बैठा चक्कर मार रहा है।
वो घूर कर देख रहा है
मगर आदमियों को नहीं
पूरी धरती को
कि धरती उसका भोजन है..।
आदमी उसे 'गड़बड़ का भगवान' मान रहा है
आदमी उसे 'एपोफिस' बोल रहा है।
आदमी उसे 'दैत्य' कह रहा है।
पर वो नहीं जानता आदमी किस्म की किसी प्रजाति को
वो भगवान है जिसे धरती से मतलब है
और धरती इस अंनत ब्रह्माण्ड का एक छोटा सा टुकड़ा भर
जिसके लिए मुंह भी नहीं फाड़ना पड़ता किसी दैत्य या भगवान को
बस एक फूंकभर धक्का देना होता है कि काम तमाम।
एक हम छोटे छोटे
दो हाथ पैरों के जीव
पता नहीं किसे पाने के लिए
किस पर जीत के लिए
किसे खाने या खत्म करने के लिए
आपस में लड़ते हैं-मरते हैं
इस धरती के उस टुकड़े के लिए
जो हमारा न कभी था, न कभी होगा..

हाशिए

दरअसल वो सुधरना और समझना चाहते थे
मगर उनके नाज़िमों ने उन्हें बहका दिया।
दरअसल वो सुधरना और समझना चाह रहे हैं
उनके नाजिम उन्हें बहका रहे हैं।
दरअसल वे न सुधर सकते हैं ,न समझ सकते हैं
उनके नाजिम उन्हें बहका चुके हैं।
दरअसल वो सब गुलाम और पत्थर हो चुके
उनके नाज़िम अब उनसे अपना काम ले रहे हैं।
सड़क पर बिखरे पड़े हैं पत्थरों के टुकड़े...
न वो पहाड़ बन सकते
न कोई शिल्प..!
सुबह कोई आएगा और झाड़ू से हाशिए पर पटक जाएगा।
【टुकड़ा टुकड़ा डायरी/17 दिसम्बर19】

फेंकोगे वही लौटेगा

हमारे हाथों में है
पत्थर और प्रेम
जो फेंक लो।
कहते हैं 
जो फेंकोगे वही लौटेगा।

ये अच्छा है

मैं सड़कों पर रेंक रहे गदहों
चीख रहे मूर्खों
और उन्हें हांक रहे
लोगों के खुश और हंसते चेहरों में
पिशाचों की आकृतियां देख रहा हूँ।
मैं देख रहा हूँ उन दानवों को
जिन्होंने माया रची है।
इंसानों के भेष में देवताओं की भूमि पर
नँगा नाच मचा कर जो
तमाम स्थिरता और सौहार्दभरे आलम को
अस्त व्यस्त कर देना चाहते हैं।
मैं देख रहा हूँ
उस विपक्ष को जिसे शान्ति की अपील करनी चाहिए
वो इस आग में अपने बुद्धिजीवियों संग
घी बनाने में जुटा है।
मैं जो देख रहा हूँ वो मुझ जैसे करोड़ों लोग देख -समझ रहे हैं या होंगे ..
और ये अच्छा है।

भारत बन जाएगा

प्रदर्शन इस लोकतंत्र की खासियत है
लोकतंत्र हिंसा से ख़ास नहीं होता।
हिंसा खत्म कर देती है वजूद उद्देश्य का
और खड़ा कर देती है कटघरे में
चोर-उचक्के, बदमाश-लुटेरों की तरह।
क्या यही बनना चाहा था?
दरअसल, वे सारे तथाकथित नेता, गुरु,उस्ताद, साहित्यकार,बुद्धिजीवी टाइप के पोंगापण्डितों के गिरोह
आज भी तुम्हारी सोच और समझ को हाईजैक किए हुए हैं
और तुम आज भी उनके पीछे अपनी जिंदगी बर्बाद कर रहे हो।
बस इतना भर तो सोचना है
उनकी कठपुतली नहीं बनना है
कि इतने में ही देखो अपना भारत बन जाएगा।

आनन्द

जगत में हूँ
जगत का नहीं हूँ
देह में हूँ
देह का नहीं हूँ।
सारी माया, सारे मोह
सारे राग-रंग सबकुछ
व्याप्त हैं चारों ओर
किन्तु निर्लिप्त हूँ
मैं केवल आनन्द हूँ।
【टुकड़ा टुकड़ा डायरी/24 दिसम्बर 19】

नमक लगाता है

प्रेम है क्या?
नदी प्रेम करती है।
यहाँ वहां पर्वतों, चट्टानों से टकराती है
घिसती है, गिरती है
रगड़ खाती है।
छिलता है बदन
मीलों का सफर तै करती है
बिना थके, उफ्फ!
ढेर सारे जख्म के बाद भी
उस सागर में घुलती है
जो नमक लगाता है।

राख नहीं होता कुछ भी

सारे सूरज जलते हैं
कुछ जल कर भी जलते रहते हैं।
प्रेम क्या नहीं कराता।
किन्तु देखो राख नहीं होता कुछ भी।

पेड़ को मुस्कुरा देता हूँ मैं

जब कहा
प्रेम है तुमसे
तो शाख हिली ,पत्ते डोले
हवा मचल कर लिपट गई।
यूं रोज एक पेड़ को मुस्कुरा देता हूँ मैं।

प्रेम संग

सारी बुद्धि तुम रखो
सारे तर्क सम्भालो
ज्ञान भंडार सब तुम्हारा
मुझे प्रेम संग 
कंगाल ही रहने दो।

प्रेम पर्वत

क्या बरसो बरस खड़े रह कर तुम ऊबते नहीं पर्वत?
मार मौसम की खाकर भी रोते नहीं पर्वत?
तुम बने कैसे? 
कैसे अपने अंदर ठूंसे रखा है लावा इतना?
फिर भी मौन खड़े, फूटते नहीं पर्वत? 
धैर्य कहाँ से पाया तुमने, सब्र इतना कैसे आया?
बताओ, क्या तुम भी करते हो प्रेम पर्वत?

जोगी मन

तुम शहर मत दिखाओ
जंगल ले चलो
जहाँ इंसानों का कोई रुतबा न हो।
मुझे अनुशासन, प्रेम और ईमानदारी से भरी जगह देखना है।
मुझे रमना है वहां जहाँ मैं पना न हो।
【जोगी मन】

प्रकृति

माना प्रकृति की सबसे विलग और विलक्षण कृति है मानव
माना बचाओ बचाओ की
पुकार विधाता सुनता है उसकी।
माना सबकुछ है मानव कि जगत का वह श्रीमंत ठहरा
किन्तु मानिए ये हुजूर कि
प्रकृति की ही रचना है सम्पूर्ण प्राणी जगत
विधाता को सुनना है उनकी भी पुकार जो मूक हैं
जो जंगल है, जो झरने है, जो पर्वत हैं जो नदी , नहरें हैं..
मनुष्य ने जिसे अपने कब्जे में ले रखा
जिसे पहुंचाई नित निरन्तर चोट है
रेती गर्दन, मरोड़ी देह
उखाड़े पेड़, सुखाई नदियां
उजाड़े जंगल, खोदे पहाड़....
क्या विधाता के ये पुत्र नहीं?
क्या इनकी रक्षा प्रकृति के जिम्मे नहीं..?
स्मरण रखे मनुष्य कि जब जब वो हत्यारा बनेगा
तब तब प्रकृति अपनी मानव कृति की सुंदरता पर मोहित नहीं हो सकेगी
कुपित होकर दंड देगी
इसी तरह कि आज दुबके पड़े सब घर में
बाहर खिलखिला रही प्रकृति सारी...
【टुकड़ा टुकड़ा डायरी/30 मार्च 2020】

जो 'है'

जो 'है'
वो अभिशप्त है
जो 'हो चुका' और 'नहीं हुआ' 'होगा' 'हो जाएगा' या 'हो सकता है' के
आरोप-प्रत्यारोप की फिजूल, बेवजह की वकीली चीखों के मध्य
कटघरे में खड़ा सुनता रहता है सुनवाई
चुपचाप, मौन, मूक दृष्टा की तरह।
जबकि यही 'है' सत्य है।

लॉक डाउन

आशंकाओं से भरे पूरे दिन
रात भर करवटें लेते रहते हैं।
कितनी सावधानियों के बावजूद जब
पता चलता है आसपास कोई संक्रमित है तो
सावधानियों का ग्राफ ऊपर की ओर भागने लगता है।
कैसा अजीब दौर है।
कितना संदेहास्पद।
भय के मध्य बिंदास रहने का.. जैसे जुमले
और अध्यात्म, दर्शन, ज्ञान की बातें
क्रमशः आयुर्वेदिक काढ़े और गिलोय वटी की तरह जान पड़ रहे हैं।
बचने और बचे रहने का तमाशा चल रहा है
मदारी का डमरू बज रहा, जमुरा नाच रहा।
■ लॉक डाउन 0.3-तीसरा दिन