'आम' से 'ख़ास' होना
कोई बड़ी बात नहीं
'ख़ास' में 'आम' जैसे हो
एसा बड़ा कोई नहीं ।
अपनों के बीच से उठ कर
अपनों से अलग हो जाना,
अपना संसार रचने का
यह केवल भ्रम तो नहीं?
बड़े पदों का ये दिखावा
जमा भीड़ का झलावा
भाई खेल ये महज
कुर्सी का तो नहीं?
आग उगलता सूरज
भी अस्त होता है
पूनम के बाद क्या चाँद
अमावस में निकलता नहीं?
ओर जो भूल बैठा है
माता- पिता को अपने
क्या उसके बच्चे
कभी बड़े होते नहीं?
रह न जाता स्थिर कुछ
उम्र भी गुजरती है
जवान दिल भी क्या
बूडा होता नहीं?
छोड़ दे इतराना
क्या रखा है इसमें
ख़ाक में मिलना है
क्यों याद आता नहीं?
1 टिप्पणी:
'आम' से 'ख़ास' होना
कोई बड़ी बात नहीं
'ख़ास' में 'आम' जैसे हो
एसा बड़ा कोई नहीं ।
bhut sunder he ........
Amitabh ji
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