बुधवार, 4 फ़रवरी 2009

प्रेम

प्रेम सिर्फ
दो शरीर से
निकली तरंगो का
मिलन नहीं ,
न ही
स्त्री - पुरुष के
संबंधो का
खेल है।
प्रेम तो वह
ह्रदय की कम्पन
धारा से बहने वाली
पावन पवन है ,
जो
कृष्ण के अधरों पर
रखी बंशी के
छिद्रों से प्रस्फुटित होकर
राग रूप में
जीवन रस घोलती है।
प्रेम सिर्फ
शब्दों से बुना मकड़
जाल भी नहीं ,
न ही
मायावी जगत का
सौदाई ताल है।
प्रेम तो
वो ओस की बूँद है
जो सुबह की
नई कोपलों से
ढुलकता हुआ ,
सूर्य किरणों संग
बेहद मासूमियत से
चमकता है ।
जिसे धरा की
भींगी भींगी
द्रूप
ईश्वरीय चरनामृत
मान आचमन कर
वायु में प्राण तत्व
प्रवाहित करता है।
किन्तु विडम्बना है॥
आज कहा है प्रेम ?
आज है तो
सिर्फ एक वादा है
एक सौदा है।
मेने किया
तूने किया का
लेखा- जोखा है।
शायद
यही वजह है की
आज बिछोह है
दुःख है, संताप है ,
प्रेम नहीं सिर्फ एक
धधकता
उत्ताप है ।

6 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

prem sachmuch hi sauda ban gaya hai.. poora lekha jokha.. jo uski sundarta ko mita raha hai...

aapne iska varnan bakhubi kiya hai...

main aati rahungi..
- Kajal

seema gupta ने कहा…

प्यार कोई व्योपार नहीं,
किसी की जीत या हार नहीं,
प्यार तो बस प्यार ही है,
रहमो करम का वार नहीं"

Regards

Vinay ने कहा…

मनभावन रचना

nidhi ने कहा…

sundar blog

कडुवासच ने कहा…

... प्रसंशनीय रचना है।

सुशील छौक्कर ने कहा…

प्रेम तो
वो ओस की बूँद है
जो सुबह की
नई कोपलों से
ढुलकता हुआ ,
सूर्य किरणों संग
बेहद मासूमियत से
चमकता है ।

अद्भुत ।