संस्कारों से सींची
मेरी धरती पर
तुम्हारी पाश्चात्य सोच के
लाल गेहूं
नहीं बोए जाते।
यहां गोबर से लीपे
आँगन में फैली
सौंधी महक
पूरे शरीर को
पावन करती है।
तुम्हारे ऊंचे व मंहगे
परफ्यूम की तरह
शरीर में उत्तेजना व
मादकता का
संचार नहीं करती।
यहाँ गली- गली
खेत-खलिहानों में
कूदते - फांदते
धूल धूसरित बच्चे
वृक्षों की टहनियों पर
झूलते- लटकते
मस्ती भरी जिन्दगी
जीते है।
किसी एस्सेल वर्ल्ड के
कृतिम व यांत्रिक
झूलो में बैठ कर
भौतिक आनंद
में लिप्त क्षणभंगुर
उत्साह का अनुभव
नहीं करते।
हां, गंवार तो मैं हूं ही
मुझमें प्रेम का
वह भौतिक
रूप भी नहीं
जिसमे दैहिक योग
की अग्नि प्रज्ज्वलित होती है,
और जब शांत होती है तो
सिवाय दुःख के
हाथ कुछ नहीं लगता।
ऊंची- ऊंची अट्टालिकाओं के
मोह में फंस
चौंधियाती जिन्दगी में
जीने की जो ललक
तुममे है, शौक से जियो।
किन्तु हां,
जब इस शौक से उपजने वाला
'शोक' तुम्हे तंग
जिन्दगी का अहसास
कराये तो
वही ऊंची सी तुम्हारी छत
पर चढ़ कर चाँद को देखना
जो मेरे गाव के आसमान पर भी
चमकता है और
नदी- नहरों की लहरों पर
अठखेलिया
करती उसकी किरणे
मन को अद्भुत सी
शान्ति का अहसास कराती है।
ठीक मेरी भावनाओं की तरह
जिसे तुमने कभी तरजीह नहीं दिया।
शायद वो चाँद
तुम्हे कुछ शान्ति दे सके?
सपना, काँच या ज़िन्दगी ...
12 घंटे पहले
16 टिप्पणियां:
वाह्! शब्द,सच्चाई एवं भावों को कितनी खूबसूरती से पिरोकर ये कविता लिखी है आपने. बहुत ही उम्दा........आभार
aaj ek amitabh ne dusre ko dekha.
sanyog kahen dusara bhi patrakaar hi hai. pichale 15 varshon se is kshetra men hai.
kavita bhi milti hai. khabi mujhe talasheng tab lagega sach hai. abhi post nahi ki hai kal kar dunga. achha laga apne humnaam ko jananaa.
aapko blog par paakar bahut khushi hui, dar asal aaj me bethaa yuhi blog ke ganit ko samjhne me laga thaa aour aapka blog mil gaya, maza aa gaya ji, aap to he hi itane behatar insaan ki kya batau, aapki lekhni aour vo bhi kavitao me..bahut achchi lagi, aap shayad mujhe bhul chuke honge, kintu bata du aapne hi mujhe insaan banaya he..aor aapka ye madhur aapke paas aakar hi aapke aashirvaad lega..
जीने की जो ललक
तुममे है, शौक से जियो।
किन्तु हां,
जब इस शौक से उपजने वाला
'शोक' तुम्हे तंग
जिन्दगी का अहसास
कराये तो.......
puri kavita hi achhi hai
amitabh ji
kya khoob likha hai ye nazm , wah ji wah .
aapne is poem me bahut si baaten cover ki hai aur sab ek aisa shabd chitr prastuth karti hai ki bus poochiye mat.
maza aa gaya padhkar
aapko shivraatri ki shubkaamnaayen ..
Maine bhi kuch likha hai @ www.poemsofvijay.blogspot.com par, pls padhiyenga aur apne comments ke dwara utsaah badhayen..
kab se is bhautiktavaadi samaaj par kuchh likhne ki ichha thi , par aapne itni sundar rachna kar dali maano bhaav mere ho aur aapne un bhaavon ko apni paarkhi nazar se taraash kar prastut kar diya ho. adbhut amitabh ji..
बहुत सुंदर रचना है।
जब इस शौक से उपजने वाला
'शोक' तुम्हे तंग
जिन्दगी का अहसास
कराये तो
वही ऊंची सी तुम्हारी छत
पर चढ़ कर चाँद को देखना
उस चांद को आज कितने ही प्रवासी देखने को तरसते हैं। स्वदेश के प्रति कशिश जो समय के आवरण से ढक सी गई थी, आपकी रचना की चंद पंक्तियों ने फिर से इस आवरण को हटा दिया। दिल भर आया।
यहां गोबर से लीपे
आँगन में फैली
सौंधी महक
पूरे शरीर को
पावन करती है।
तुम्हारे ऊंचे व मंहगे
परफ्यूम की तरह
शरीर में उत्तेजना व
मादकता का
संचार नहीं करती।
Waah Amitabh ji kya bat kahi hai...! !
अमिताभ जी आज ही आपके ही कारण आपका ब्लोग पढा। और सच पूछिए पहली ही पोस्ट पढकर दिल खुश हो गया। शब्दों की महक जादू कर गई।
यहां गोबर से लीपे
आँगन में फैली
सौंधी महक
पूरे शरीर को
पावन करती है।
ये मत समझना कि यही पसंद आया। बस ये कि कुछ ज्यादा महका गया। अब तो आना जाना लगा ही रहेगा। वैसे आपका प्रोफाईल भी दिल छू गया।
दिल को छू लेने वाली रचना..आभार प्रस्तुति का.
शुभकामनाएं........
संस्कारों से सींची
मेरी धरती पर
तुम्हारी पाश्चात्य सोच के
लाल गेहूं
नहीं बोए जाते।
अमिताभ जी
बहुत ही शशक्त रचना है, भावों को सुंदर तरीके से अभिव्यक्त किया है आपने, शब्दों के ताने बानों को अपने मायने दिए हैं. दिल से निकली हुयी बात लगती है आपकी रचना
श्रीवास्तव जी /रचना सटीक किन्तु ग्रामीण जीवन अब बैसा नहीं रहा पाश्चात्य संस्कृति ग्रामीण क्षेत्रों में अपनी जड़ें जमा चुकी है
बहुत खूब !
सरल हृदय की सहज अभिव्यक्ति
शब्दों में जेसे
बिखरी हो मिटटी सौंधी !
वही ऊंची सी तुम्हारी छत
पर चढ़ कर चाँद को देखना
जो मेरे गाव के आसमान पर भी
चमकता है और
नदी- नहरों की लहरों पर
अठखेलिया
करती उसकी किरणे
मन को अद्भुत सी
शान्ति का अहसास कराती है।
... प्रसंशनीय अभिव्यक्ति।
वाह भाई आपने तो मुझे शहर से एकाएक गाव पहुंचा दिया है । और गांव की सौधीं मिच्टी की महक में पहुंच गया है । वहां की खुशबू में खो गया हूं । बेहद रोचक रचना दिल खुश हो गया है लाजबाब
काश आपकी कविता उन दिलों को थोडा सा छु जाए जो
भोतिक सुख केलिए आँखें बंद किये भाग रहे हैं ...
और उस सुख से मुँह फेरे हैं जो बिना मोल के
उन्हें मिल सकता है ....बहुत सुंदर लिखा है आपने
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