सोमवार, 2 जुलाई 2018

छिपे प्यार

हर एक कविता के बाद
छोड़ देते हो तुम
प्रतीक्षा ।
हाँ न ...तुम्हे खबर नहीं है 
मुझे प्रेम हो गया है
तुम्हारी कविताओं से ।
मानो या न मानो
किन्तु लिखे शब्द और उनके अर्थ
जैसे छू कर मुझसे
जाते हैं
जैसे सिरहन सी दौड़ती है पूरी देह में ।
जानते बूझते भी कि
मेरे लिए नहीं है ये शब्द ,
न ये डोली भाव की
जो सामने से गुजरती है
गुजर जाती है।
फिर भी
देर तक खड़ा महसूसता रहता हूँ
गंध को कविता की ।
जैसे फिर लौटोगे तुम अपनी कविता के साथ
इसी रास्ते से
और मैं दूर खड़ा निहारूँगा
डूब जाऊँगा , पढ़ जाऊँगा।
और तुम्हे खबर भी न होगी
छिपे इस प्यार की।

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