अनमना सा मैं। डूबा तो अपने शहर के उन दिनों तक जा पहुंचा जो दिलोदिमाग में जड से गये हैं, पिघला तो पिघलता ही चला गया। होता है कभी कभी ऐसा भी। फिर शब्दों ने नहीं देखा कि उसकी बनावट कैसी है, वो किस रूप में हैं। जब यथार्थ के धरातल पर आकर शब्दों की ओर नज़र गईं तो सुधारना चाहा, किंतु किसे सुधारुं? बना हुआ अतीत कब बिगडता या सुधरता है? सो जस का तस। आपके लिये।
"गोबर से सने हाथ
लिपा हुआ आंगन
और आंगन मे बनाती
रंगोली,
कितनी रंगीली लगती थी वो।
उसकी चटक धूप से
मखमली सांझ तक की मेहनत
रंग लाती मुझे दिखती थी तब
जब रंगोली बनकर
तैयार हो जाती थी
और चेहरे पर संतोष की लकीरें
मुस्कान के साथ खिलती थी,
कितनी मासूम सी लगती थी वो।
निहारता था मैं
रंगोली को नहीं
ज्यादा उसे,
और पता भी नहीं चलता था जग को
कि किसे देख रहा हूं।
जब कोई उसकी कृति की
तारीफ करता
तो मैं भी करता,
रंगोली की नहीं,
उसकी जिसने बनाई थी।
मैं जानता था
वो नही जानती
कि मैं उसे देखने आता था
उसकी रंगोली के बहाने।
और
प्रेम के रंगों से
हृदय में नित बनाया करता था
उसकी-अपनी सपनों की रंगोली।
हां तब जब
उसकी बनाई रंगोली कोई
मिटा जाता तो
फिर बना लेती थी वो।
मगर
मगर
मेरी बनाई रंगोली जब मिटी
आज तक नहीं बन पाई है।"
बिमारी ... प्रेम की ...
1 हफ़्ते पहले
26 टिप्पणियां:
उफ्फ!! बहुत गहन भावाव्यक्ति!
खूबसूरत भावों की पद्यात्मक रंगोली बखूबी सजाया है आपने।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
... बहुत सुन्दर भाव, बेहद प्रभावशाली अभिव्यक्ति !!!
हां तब जब
उसकी बनाई रंगोली कोई
मिटा जाता तो
फिर बना लेती थी वो।
मगर
मगर
मेरी बनाई रंगोली जब मिटी
आज तक नहीं बन पाई है।"
उफ्फफ्फ्फ़ ! क्या कहूं .......
हां तब जब
उसकी बनाई रंगोली कोई
मिटा जाता तो
फिर बना लेती थी वो।
मगर
मगर
मेरी बनाई रंगोली जब मिटी
आज तक नहीं बन पाई है।"
बहुत गहरे भाव । शुभकामनायें
जब कोई उसकी कृति की
तारीफ करता
तो मैं भी करता,
रंगोली की नहीं,
उसकी जिसने बनाई थी।
बहुत सटीक कहा है.लोग भी इन्सान की तारीफ़ करते हैं भगवान की नहीं जिसने उन्हें बनाया
हां तब जब
उसकी बनाई रंगोली कोई
मिटा जाता तो
फिर बना लेती थी वो।
मगर
मगर
मेरी बनाई रंगोली जब मिटी
आज तक नहीं बन पाई है।
कोई बात नहीं दिमाग में तो उस रंगोली की छप आज भी होगी. खुश होने और किसी को याद करने के लिए तो बस एक अहसास भी काफी है
हां तब जब
उसकी बनाई रंगोली कोई
मिटा जाता तो
फिर बना लेती थी वो।
मगर
मगर
मेरी बनाई रंगोली जब मिटी
आज तक नहीं बन पाई है।"
पढ़ के जाने क्यूँ इक ग़ज़ल याद आई..
दिल में इक लहर सी उठी है अभी.कोई ताज़ा हवा चली है अभी..
अमिताभ जी, आदाब
.........................मैं जानता था...वो नही जानती...
कि मैं उसे देखने आता था...उसकी रंगोली के बहाने।
और...प्रेम के रंगों से...हृदय में नित बनाया करता था
उसकी-अपनी सपनों की रंगोली।
.....उसकी बनाई रंगोली कोई...मिटा जाता तो
फिर बना लेती थी वो......मगर
मेरी बनाई रंगोली जब मिटी
आज तक नहीं बन पाई है......
अतीत की स्मृतियों को स्मरण कराती...बेहद उम्दा रचना.
अपना एक शेर याद आ गया
अपनी बात कहने का हौसला न कर पाया
उम्र भर रुलाएगी मेरी बुज़दिली मुझको...
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
रंगोली के बहाने
दाग दी अमिताभ ने
अद्भुत रंग की गोली।
उफ्फ क्या कहूँ अमिताभ जी.. आपने यह रचना बहुत देर से पोस्ट की.. इससे हमें पहले ही मिलवाना था...
ना जाने क्यों आखों में आंसू ले आई.. आपकी यह रचना.. शायद में यह सोच सकता हूँ की यह आपकी अद्वितीय रचना है...
मैं इसे आपकी सर्वोपरी रचना मानूंगा...
बहुत सुंदर.. ऐसी रचनाये कोई लिखता नहीं यह खुद हो जाती हैं...
बधाई स्वीकारें...
Wah..bahut badi bat kahdi aapne...nice
इस बार तो कविता सीधे दिल में उतर गयी साहब
क्या कहें किन शब्दों से अपने भावों को व्यक्त करें। गजब की सुन्दर रंगोली बनाई है आपने। हर रंग अपना एक अलग ही असर छोड रहा है। सच पूछिए इससे अच्छी रंगोली नही देखी आजतक। हर शब्द भाव को बखूबी कहता है और दिल को छूता है। वैसे बनी हुई चीज को सुधारा नही करते सुधारने से कई बार सिम्पलसिटी खत्म हो जाती है और मुझे तो सिम्पलसिटी ही पसंद है। खैर आपकी ये रचना मेरी फेवरीट में शामिल हो गई है। और मेरी डायरी का हिस्सा बन गई है। और हाँ कभी मौका मिले तो इस रंगोली को ब्रश से बना देना। ये हमारी प्रार्थना है जी।
sushilji, brash jaroor chalaunga..me bhi dekhataa hu aakrati me kesa lagta he sapanaa. aour bahut bahut dhnyavaad jo pasand aai meri rachna.aapke saath un sabhi ko jinhone mujhe nazar kiya, navaaja.
इक हंसी याद में दिल मेरा खो गया -----।
सुन्दर अहसास लिए यादें।
'प्रेम के रंगों से
हृदय में नित बनाया करता था
उसकी-अपनी सपनों की रंगोली।'
-मगर
मेरी बनाई रंगोली जब मिटी
आज तक नहीं बन पाई है।"
-प्रेम के रंग पक्का होते हैं ,उनका रंग कभी फीका नहीं पड़ता ..मिट कर भी अपना निशान छोड़ जाते हैं
मन के अनकहे कोमल भावों की सुंदर अभिव्यक्ति.
आह! अमिताभ जी...अमिताभ जी, कौन कमबख्त इस रचना में शिल्प तलाशने की गुस्ताखी करेगा।
हमसब की जिंदगी की कितनी ही रंगोलियों का पता देती ये कविता...जय हो!
सच है अतीत किस्के बनाए बनता है और किसके बनाए बिगड़ता है ... बस यादें और सिर्फ़ यादें रह जाती हैं ... मन को सालती हुई .. जीवन की भाग दौड़ में इंसान उन यादों को सोचता ही रहता है ... अतीत का हर लम्हा, पर पल किसी रंगोली की तरह बस सजता रहता है दिल में ...
किसी को देखना रंगोली के बहाने ... रंगोली में अपने प्रेम की रंग सजाना ... फिर अचानक समय की आपा धापी में कितना कुछ खो देना ... अपने जेवन की रंगोली को जीवन भर सजाने की कोशिश ... कितना कुछ खो जाता है समय की गर्त में ...
बहुत ही लाकां की अभिव्यक्ति है अमिताभ जी .. रतार्थ से झूझती रचना ...
बहुत गहरे भाव लिये बहुत हि सुन्दर अभिव्यक्ति ..आभार!!
http://kavyamanjusha.blogspot.com/
हम इस रचना में इस कदर खो गए हैं कि बाहर ही नहीं निकल पा रहे हैं |
बेहतरीन प्रस्तुति
बधाई ................
रंगोली पर मै भी बहुत दिनो से कुछ लिखना चाह रहा था .. यह कविता पढ़कर अच्छा लगा
मर्मस्पर्शी!
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति
बहुत ही सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ आपने शानदार रचना लिखा है! आपकी लेखनी को सलाम! इस उम्दा रचना के लिए ढेर सारी बधाइयाँ!
bahut hi gahre bhav liye huye ,umda
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