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" क्यो याद सिर्फ़
तडपाती है?
मदमदाती क्यो नही?
गुदगुदाती क्यो नही?
क्यो
दावाग्नि की तरह
हहराती लपटों से
निराधार हृदय को
भस्म करने को
आतुर होती है?
और तो और
ये दावाग्नि शांत भी होती है तो
उसकी गर्म - तपतपाती राख
हवा के साथ उड़ उड़ कर
शरीर से जा चिपकती है।
रोम- रोम में रच-बस जाती है।
मन-मस्तिष्क के
निभृत एकांत को मानो
नोच-नोच कर खाती है।
क्यो ऐसा नही होता कभी की
इस प्रलय शून्य सन्नाटे में
याद चुपके से आए
अपनी महासागरीय
उत्ताल भुजाओं से थाम ले,
भींच ले अपने अंक में,
तमाम इन्द्रिय
मोहित मृग के समान
थिरकने लग जाए,
बंशी की धुन
वीणा के झंकृत तार
सुध-बुध खो दे।
क्यो नही होता ऐसा
की
याद किसी
मेघाच्छादित
आकाश की तरह
अपने आँचल से
सरस्व ढंक ले?
अपने ममतालु, मर्म स्पर्श से,
श्रृंगार रस की बारिश कर दे?
अपनी मखमली नर्म
आगोश में लेकर
छुपा ले?
अपने मादक अधरों से
टपकते अमृत का रसपान करा दे।
तृप्त कर दे हर वो शन
जो नितांत एकाकी होकर
अपने नुकीले- तीखे
कांटो से अतीत को
कुरेदते है और हर सम्भव
पीड़ा- दर्द- तड़पन दे जाते है।
उन्मुक्त हो मुस्कुराने का
पुरस्कार क्यो नही देती यादे?
शायद इसलिए की
यादे भी निछल, समर्पित
निस्वार्थ प्रेम मांगती है।
सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रेम। "
22 टिप्पणियां:
sach kaha hai ji, sirf aur sirf prem maangati hai yaadin, madhur honne ke liya.. Mere pass bhi kuch madhur yaadein hai, uss nischchal satya prem ki , jis se maine kabhi baat bhi naa ki aur sirf aakhon mein ishshare aur hautton pe muskan badal kar eh gaya main, apne school dinno mein. Aaaj bhi woh yaad mujhe ander se muskara jaati hai, 12 saal ke baad bhi. prem apne makkam pe toh kya, ek kadam bhi parwaan na chadhdha, magar yaadein bahut madhur de gaya
अमिताभ जी
प्रभावी अभिव्यक्ति है इस रचना में..............यादें यूँ तो सुख और शान्ति की खोज में आती हैं पर दर्द, तड़प और कसमसाहट ही छोड़ती हैं...........निश्छल प्रेम, स्वार्थ रहित कुछ करने की यादें अक्सर मीठी और शान्ति देने वाली होती हैं.....पर अक्सर ऐसा होता कहाँ है. इंसान कुछ भी करते हुवे पहले प्रत्युत्तर में कुछ चाहता है............प्रेम में भी कुछ न कुछ मांगता है और तभी इतना चोभ और दर्द पाता है..........
सुन्दर रचना है .......इस सच को सार्थक उतारा है आपने
yado ko upma alnkar sesusajjit kar bhut hi sundar dhang se kavita me dhala hai.
abhar
क्या कहूँ अमिताभ जी, शब्द ढूढ़ने होगें कुछ और कहने के लिए। यादों को जिस भाव में आपने लिख दिया है। सच दिल से वाह निकलती है। आपकी लेखनी का जवाब नही।
यादें सिर्फ़ तड़पाती है?
मदमदाती क्यों नही?
गुदगुदाती क्यों नही?
.............
शायद इसलिए की यादे भी निछल,
समर्पित निस्वार्थ प्रेम मांगती है।
सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रेम। "
वाह दिल पर राज कर लिया जी आपने।
TOOO MUCH!!
Sorry for the slang kind of language.
But this is really too much to take.
Excellent 'pure' Hindi words.
I am spellbound to say the least.
'Atyadhik sundar....'
Apane naam ko charitaarth kar diyaa aapane.
~Jayant
अमिताभ जी ,
संयोग और वियोग दोनों ही सृंगार रस के दो रूप हैं , कवियों का मानना है कि दोनों की तड़प में सुख मिलता है क्योंकि दोनों ही प्रेम से जुड़े होते हैं .....नुकीले- तीखे कांटो से अतीत को कुरेदते है और हर सम्भव पीड़ा- दर्द- तड़पन में भी सुख दे जाते हैं दे जाते है....!!
yaadein to tabhi dard ban jati hain, jab hum yaadon se ummeed laga lete hain.. paane ki ..milne ki.. khushiyon ki....
yadi yaad ko apna pyaar mehsoos kara pate, yaad ke sath muskura pate, yaad ko nischhal prem ka aabhaas kara pate to yaad, dard nahi deti,... gudgudaati.. dil ke bheega deti apni narmi se...apni sheetalt se..jalaati nahi..
भाई अमिताभ जी,
याद के जो रूप आपने गिनाये, शायद वो सब भावुक लोगों से ज्यादा सम्बद्ध लगते हैं.
आपने लिखा है कि ....
उन्मुक्त हो मुस्कुराने का
पुरस्कार क्यो नही देती यादे?
तो इस बाबत जरा उग्रवादियों, गुंडों , बदमाशों, कुटिल पड़ोसियों, कुटिल विचारकों, कुटिल कूटनीतिज्ञों, कुटिल टूशन की दुकान चलने वालों आदि आदि को देखिये, सब अपनी-अपनी कुटिल यादों को बहुत सहेज कर रखते हैं और अपने लोगों के बीच अपनी इसी यादों को बतौर सफलता के दोहराते हैं और न केवल स्वयं उन्मुक्त हो हँसते, बल्कि अपने परिचितों, मातहतों को भी हंसातें है और नावंगुतकों पर अपने प्रभुत्व का प्रभाव छोड़ने में कोई कसार नहीं छोड़ते. मैं गलत तो नहीं कह रहा हूँ न........
कुल मिला कर आपकी कविता अति सुन्दर, भावों, विचारों से भरी हुई है.
अच्छी रचना पर बधाई.
चन्द्र मोहन गुप्त
हरकिरतजी,
आपने सही कहा,किंतु मैने श्रंगार रस को परिभाषित ढंग से ही लिया था जिसमें सिफॅ प्रेम व अनुराग है। दो भेद होते हैं,1-संयोग,2-वियोग या विप्रलम्भ। आपने स्पष्ट किया इसके लिए धन्यवाद किन्तु अब मैं भी स्पष्ट कर देता हूं कि इसे सिफॅ प्रेम व अनुराग से ही लिया जाए। यानी प्रेम और अनुराग की बारिश कर दे।
प्रिय श्रीवास्तव जी /आनंदित कर दिया रचना ने /एक एक शब्द चुन चुन कर मोतियों की माला तयार कर दी आपने /
मदमदाती ,गुदगुदाती ,दावाग्नि ,मन-मस्तिष्क का निभृत एकांत ,प्रलय शून्य सन्नाटा महासागरीय उत्ताल भुजा ,मोहित मृग,वीणा के झंकृत तार / मुझे भी मोहित मृग की तरह मोहित कर दिया ,लगा जैसे वास्तव में कुछ पढ़ रहे हैं /धन्यवाद //
अमिताभ जी, आपकी ये रचना आपकी पूर्ववर्ती रचनाऒं की अपेक्षा,विषय और भावों की दृष्टि से नवीनता लिये हुये है। सच कहूं, मुझे आपकी ये प्रस्तुती बेहद पसन्द आई.
क्या कहूँ अमिताभ भाई इस अनूठी कृति पर...
शब्द-सारे-शब्द ये कितनी यादें, कितनी तड़प एक साथ जगाते हुये
...बेहतरीन
... सुन्दर रचना !!!!!!
bahut hi sundar aur bhaavna pradhaan abhivyakti keep it up!shukriya mere blog par samay dene k liye
बहुत बेहतरीन काव्य
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चाँद, बादल और शाम । गुलाबी कोंपलें
यादो के जंगल में आपने बहुत अच्छे फसाने लिखे है । जिस तराने में ददॆ है कसमसाहट है सारी चीजो का मिलावट है अच्छी टिप्पणी है शुक्रिया
yade to sabke pass hoti hai magar apne lajwab likha hai.....sahi hai yade sirf tadpati hai....
क्या बात करते हैं आप amitabh भाई.....yaaden तो सब kism की होती हैं.....बस हम जिस mud में rahen.....और aksar हमारे मूड से bilkul viprit yaaden आ आकर हमारे मन को बिलकुल उलट-पुलट भी कर जाती है..........और इसी में यादों की इम्पोर्टेंस भी है.....!!
भाई,
बहुत दिनों के बाद आपके ब्लॉग पर आया हूँ, क्षमा चाहूंगा देरी की।
क्या खूब लिखा है यादों के बारे में.... वाह!!!
मुझे तो निम्न पंक्तियों ने मधुर यादों से सराबोर कर दिया :-
क्यो ऐसा नही होता
कभी कीइस प्रलय शून्य सन्नाटे में
याद चुपके से आए अपनी महासागरीय उत्ताल भुजाओं से थाम ले,
भींच ले अपने अंक में,
तमाम इन्द्रिय मोहित मृग के समान थिरकने लग जाए,
बंशी की धुन वीणा के झंकृत तार सुध-बुध खो दे।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
यदि संभव हो तो अपना कोई सम्पर्क सूत्र दें, मुंबई आना जाना रहता है कभी वक्त रहा तो मिल बैठेंगे और बतियायेंगे।
मेरा नम्बर : ०९४२५०६५११५ है
ladkiyaan chhoona chahtee hain aasmaan pustak ke sambandh mein apka sandesh mila. in dinon america mein hoon. july mein laut kar bhejooga.apna pata mail kar dein.
asha hai sanand honge.
apkee kavita ne prabhavit kiya hai.sunder hai !
यादें जहाँ गरम तपती रेट बनती हैं वहीँ कभी कभी मरहम का भी काम करती है...
भावपूर्ण कविता...आप ने इस में हिंदी के कठिन शब्दों का भी बखूबी प्रयोग किया है.
AMITHABJI AAPKO "YADHEN" KI SHANDHAR ABHIVYAKTI PER DHERO-DHERO BADHAIYAAA....................
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