रविवार, 16 दिसंबर 2018

आदमीयत वाला आदमी

आदमीयत वाला आदमी
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मैं बहुत पीछे छूटा हुआ आदमी हूँ।
बहुत पीछे।
जहाँ होशियारी नहीं होती 
जहाँ वो गंवारपन होता है
जरा सा कोई प्रेम से कह दे
हृदय खोल के परोस दिया जाता है।
मैं नहीं समझ पाता आज भी
समझदारी की वो बातें
कि हर किसी को प्रेम नहीं करना चाहिए
हर किसी को दोस्त नहीं बनाते
हर किसी से खुल कर पेश नहीं आते
हर किसी से स्पष्टता नहीं होती ।
इतना गांवठी हूँ कि
रो देता हूँ
खो देता हूँ
हर उसको जिससे प्रेम होता है।
और देखो मेरा बुद्धू होना कि
मनाते कैसे हैं
जतलाते कैसे हैं
कि
कुछ भी तो नहीं आता मुझे।
इसीलिए हर वो कहता है
जो दूर हो जाता है
कि देखो ये
अपने मुंह मियां मिट्ठू बनता है।
मिट्ठू होता तो निर्मोही होता
किन्तु मैं चकोर सा
बस घने वृक्ष की पत्तियों से ढंकी उस शाखा पर
बैठा रहता हूँ
जो दिखती नहीं ।
मगर टूटती सबसे पहले है।
सच में , मैं छूटा हुआ, टूटा हुआ
एक आदमी हूँ।
【टुकड़ा टुकड़ा डायरी/18 अक्टूबर 2018】

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