रविवार, 16 दिसंबर 2018

नीला विष

पर्वत हो जाना चाहा कभी
कभी नदी
तो कभी वो पगडंडी जिस पर चल कर
गुजरते रहे पर्वत, नदी, ताल ।
हुआ कुछ नहीं
बस सफर ही रहा
उपर फैला विस्तृत आकाश
शून्य का महासागर बन
सिर पर तारी रहा
और बस मन की लहरें
उथलती रही, चढ़ती उतरती रही।
मंजिल थी ही नहीं
घुमावदार रस्ते ,घाट, खाइयां
जंगल और फिर लंबी सी बिछी हुई
स्मृतियाँ ही स्मृतियाँ
अजगर की तरह देह से लिपटी कसती रही।
उन्होंने कहा था साथ ही रहना मेरे
फिर पता नहीं क्या हुआ कि
वे छिटक गए।
अब ये यात्रा है
सबकुछ है
वे नहीं हैं।
हो सकता पर्वत, बह सकता नदी बन
या लेट जाता पगडंडी की तरह
तो लौटता ही नहीं।
लौटना और फिर फिर
वहीं से गुजरना
जहाँ से गुजरा करते थे साथ हम
जन्म-मृत्यु के मध्य का
विकट समय होता है।
शायद इसे ही कहते हैं नीला विष जिसे
शंकर ने कंठ में रोक लिया था।
【टुकड़ा टुकड़ा डायरी/30/10/2018】

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