रविवार, 16 दिसंबर 2018

सार

कैसा तो गूंथा है आपस में
हरा, सूखा सब झाड़ झँखड़
जैसे अब कोई रास्ता ही न हो
उलझे रह जाओ यहीं सुख दुःख की तरह
मुक्त हो ही न सको।
सुनो प्रिये,
मत थको,
कि आगे बढ़ो..
हरे भरे में खोओ मत
कि सूख चुके पत्तों का दुःख ओढो मत
पार करो इसे भी क्योंकि
उस पार फैला 'आकाश' है
और वही सार है।

(2 des 2018)

कोई टिप्पणी नहीं: