कम शब्दों में बहुत कुछ कह दिया। सच हम भ्रम में ही पूरी जिंदगी बीता देते है। कई बार भ्रम में रहना भी सुखदायक होता है बाकि इतना जानकार नहीं। वैसे एक चीज महसूस की है काफी दिनों से कि आपकी रचनाएं क्लासिक होती जा रही है। जो शब्द उन रचनाओं के लिए लिखना चाह रहा था पर सही से स्पेल नही कर रहा हूँ। खैर आपकी रचनाओं से जिंदगी के वो रंग निकल रहे जिनको रंग कर इंसान मजबूत बनता है और जिंदगी को अपनी शर्तो पर जीता है। वो विरला ही होता है। और आप......
प्रियवर अमिताभ श्रीवास्तव जी ज़िंदगी के सच कितने रूपों में नित्य प्रति हमारे समक्ष आते रहते हैं … महानगर की दिनचर्या के बिंब अच्छे उकेरते हैं आप । बधाई !
और, भ्रम तो दूर होने के लिए ही होते हैं … भरम ढोते रहे पैरहन की तरह सहते आए सितम हम करम की तरह
अमिताभ जी, बहुत उम्दा रचना है... संयोग देखिए कि रश्मि प्रभा जी ने भी अपनी रचना ’मैं कहां हूं’ में ऐसे ही सवाल से रूबरू कराया है. लिंक है- http://lifeteacheseverything.blogspot.com/2010/08/blog-post_28.html
एक और भी सच है वो ये कि... "मौत मुंसिफ है कमोबेश नहीं. सबको आती है सबकी बारी से..." और ये डिब्बे जिस्म ए पैराहन. रूह कैद है जिसमें... चाहे जनरल का डिब्बा हो या फर्स्ट क्लास . जंजीर तो जंजीर ही है न... सोने की हो या लोहे की. और रूह आज़ाद हो तो चैन मिले... मानो मंजिल मिले.
जब दुनिया गहरी नींद सोती है, तब किताबें मेरा साथ निभाती हैं...
गाती है, गुनगुनाती है, किताबें जीना सिखाती हैं..
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मिलती है जब, कुछ मौज़ औ' कुछ मस्ती
कृपा उस ईश की, जो हम पर् है बरसती
आपके आशीर्वाद
" जिनके चरणों मे झुका ये शीश है, पिता ही मेरे गुरु, मेरे ईश हैं,है ये सौभाग्य मेरा कि मेरे,कदम-कदम उनके आशीष हैं.. " ( सालों पुरानी ये तस्वीर है, इस तरह की यह एकमात्र तस्वीर)
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याद रहेंगे हम भी जवां थे कभी।। चलो, इक तस्वीर जड़ कर लगा दें अभी।।
लम्बा जीवन मुंबई के कई प्रतिष्ठित समाचार पत्रों में पत्रकारिता को दे डाला। दूरदर्शन के लिये ढेर सारी डाक्यूमेंट्री लेखन के अलावा आकाशवाणी मुम्बई के ;खेल पत्रिका; कार्यक्रम का लगातार 3 साल तक संचालन , दूरदर्शन के लिये ही दो-तीन धारावाहिक लेखन जिनमे करगिल युद्ध के बाद बनाया गया 'वीरो तुम्हे सलाम' सबसे बेहतरीन । फिलवक्त पठन और लेखन। व्यस्त रहने को सबसे बडा सुख मानता हूं। रह कर देखें..मज़ा आयेगा।
22 टिप्पणियां:
भ्रम बरकरार रहे। ताकि जिंदगी गलीज न लगे और जीते रहें सांस लेने की शर्त पर।
भीड़ में सब एक है ,खो जाने पर भी! भ्रम का टूटना ही बेहतर है |
भीड़ में कौन क्या है नहीं पता रहता ..भ्रम कि हम विशेष हैं व्यर्थ है ..
बेहतरीन प्रस्तुति. कितना नयापन लिए हुए. अक्सर ऐसा ही लगता है काश ये भ्रम बना ही रहे तो अच्छा
Wow!!!!!!!!! Amitabh ji maza aa gaya. Kya bat kahi aapne?
Well and Excilent
Sanjay Pati tiwari
कम शब्दों में बहुत कुछ कह दिया। सच हम भ्रम में ही पूरी जिंदगी बीता देते है। कई बार भ्रम में रहना भी सुखदायक होता है बाकि इतना जानकार नहीं। वैसे एक चीज महसूस की है काफी दिनों से कि आपकी रचनाएं क्लासिक होती जा रही है। जो शब्द उन रचनाओं के लिए लिखना चाह रहा था पर सही से स्पेल नही कर रहा हूँ। खैर आपकी रचनाओं से जिंदगी के वो रंग निकल रहे जिनको रंग कर इंसान मजबूत बनता है और जिंदगी को अपनी शर्तो पर जीता है। वो विरला ही होता है। और आप......
रोज़ चढना
रोज़ उतरना।
सच है जिन्दगी के।
SARAL SHABDO ME JINDGI KE YATHARTH KO PARIBHASHIT KIYA HAI..!
भ्रम न भी रहे पर भ्रम न टूटे ये चाहत कहां जाती है,
इस भ्रम का
दूर होना कि
हम विशेष हैं।
:)
aap sab ke liye vishesh thode hi ho.....
jinke liye ho...unke liye to ho hi.....
कम शब्द और तीखे तेवर अमिताभ श्रीवास्तव की शख्सियत है लेखन में ... मजा आगया आज तो भाई साब ..
अर्श
भ्रम तो भरमाने के लिये है ।
amitabh jee
pranam !
behad hi sunderta se aap ne abhivyakti prastutat ki hai ,
sadhuwad.
saadar
मुंबई की सच्चाई यही है, भ्रम में जी रहे हैं सारे प्राणी
umda..amtitabh ji...umda!
प्रियवर अमिताभ श्रीवास्तव जी
ज़िंदगी के सच कितने रूपों में नित्य प्रति हमारे समक्ष आते रहते हैं …
महानगर की दिनचर्या के बिंब अच्छे उकेरते हैं आप ।
बधाई !
और, भ्रम तो दूर होने के लिए ही होते हैं …
भरम ढोते रहे पैरहन की तरह
सहते आए सितम हम करम की तरह
- राजेन्द्र स्वर्णकार
बहुत दिनों के बाद आपकी टिपण्णी मिलने पर बेहद ख़ुशी हुई!
बहुत सुन्दर और शानदार रचना लिखा है आपने! बहुत बढ़िया लगा ! उम्दा प्रस्तुती!
आनंद आ गया रचना पढ़कर
अमिताभ जी, बहुत उम्दा रचना है...
संयोग देखिए कि रश्मि प्रभा जी ने भी अपनी रचना
’मैं कहां हूं’ में ऐसे ही सवाल से रूबरू कराया है.
लिंक है-
http://lifeteacheseverything.blogspot.com/2010/08/blog-post_28.html
एक और भी सच है वो ये कि...
"मौत मुंसिफ है कमोबेश नहीं.
सबको आती है सबकी बारी से..."
और ये डिब्बे जिस्म ए पैराहन.
रूह कैद है जिसमें...
चाहे जनरल का डिब्बा हो या फर्स्ट क्लास .
जंजीर तो जंजीर ही है न...
सोने की हो या लोहे की.
और रूह आज़ाद हो तो चैन मिले...
मानो मंजिल मिले.
bhaiyya,
kadwa hai ..par sach hai..
Kajal
लोकल के फर्स्ट्क्लास डिब्बे से .. इस बिम्ब का अलग अर्थ है ।
!!!!!!
Ashish
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