यह भी अज़ीब संयोग है कि कानपुर में भारतीय क्रिकेट टीम ने अपनी 100 वीं टेस्ट जीत अर्जित की और मैने ब्लोग पिच पर अपनी 100 वीं रचना। हालांकि टीम इंडिया ने 1932-33 से अपने टेस्ट जीवन की शुरुआत की थी और 1952 में पहली जीत हासिल की थी। मैं 2008 में ब्लोग पिच पर उतरा था और अक्टूबर को पहली रचना पोस्ट की थी। भारत की 432 वें टेस्ट मैच में 100 वीं जीत है और मेरी करीब 400 दिनों में 100 वीं रचना। है न अज़ीब संयोग। खैर..।
जीवन में घटनाये होना अवश्यंभावी है। प्रकृति घटनाओं में समाई होती है। घटनायें घटित होने के बाद ही हमें ज्ञात होता है कि कुछ हुआ है। यह प्रकृति का गुण है, और शायद इसीलिये प्रकृति को रहस्यमयी माना जाता है। किंतु जो भी घटनायें घटनी होती है उसके घटने का क्रम न जाने कब से प्रारंभ हो चुका होता है। अज्ञात ही सही मगर एक एक तिनके जुडने लगते हैं। काल उसे बुनने लगता है। क्रमानुसार उसके छोटे से छोटे अंश आपस में टकराने लगते हैं और एक विशेष दिन को उद्घाटित करने के लिये पूरा का पूरा प्राकृतिक तंत्र जुट जाता है। कहते हैं इस प्रकृति में जो भी घटता है उसका कोई न कोई अर्थ अवश्य होता है। निरर्थक कुछ नहीं करती प्रकृति। शायद यही वजह है कि सुशील छौक्कर जी और अमिताभ श्रीवास्तव की प्रत्यक्ष भेंट के लिये प्रकृति ने अपना काम बहुत पहले से शुरू कर दिया होगा। ब्लोग की दुनिया से भी पहले। मिलने के लिये कब कब और कौन कौन सी जरुरते होनी है स्वतह ही निर्मित होती चली गई होंगी , हमारे अनजाने ही। दुनिया बहुत छोटी है। सैकडों लोग रोज़ टकराते हैं। किंतु किससे कब कैसे मुलाकात होनी है यह अज्ञात ही होता है और एकदिन जब मुलाकात हो जाती है तो आश्चर्य होता है। इसके बाद किसी दूसरी प्राकृतिक आवश्यकता की पूर्ति के लिये समय दिन बुनने लगता है। स्मृतियां भी बनती है और भविष्य भी निर्मित होता चला जाता है। कुछ जो कर्म होने है वो सम्पादित भी होते चले जाते हैं। हमे बगैर खबर हुए ही हमसे प्रकृति कार्य करवा लेती है। क्योंकि हम प्रकृति के हाथों में कैद हैं। उसके कर्मों के एक माध्यम हैं। उसके लिये कोई बडा या कोई छोटा नहीं होता। सब के सब सामान्य, उसके हाथों के खिलौने। फिर कैसे कहें कि हमने कोई बडा नहार मार लिया? या हम किस शान, किस अहम में जीते हैं? सबकुछ बेमानी। प्रेम ही एकमात्र ऐसा वाहक है जो ईश्वरीय शक़्ति का अहसास कराता है और इस प्रकृति मे तमाम प्राणी इस अद्भुत प्रेम शक़्ति से बन्धे होते हैं। अब यह समय के उपर है कि कब कौन किससे मिलता है?
सुशीलजी से मुलाकात हुई मुम्बई, कल्याण स्टेशन के प्लेट्फार्म नं-5 पर। पंजाब मेल का 24-25 घंटों का लम्बा सफर तय करते हुए 22 नवम्बर की सुबह करीब 7.30 बजे वे दिल्ली से अमिताभ तक आये। अमिताभ इसलिये कह रहा हूं कि वे सिर्फ और सिर्फ मेरे लिये मुम्बई आये थे। अन्यथा होता यह है कि मुम्बई आना होता है, यहां कोई रहता है तो चलो उनसे भी मिल लिया जाये जैसी मानसिकता होती है। हालांकि मिलने के लिये यह मानसिकता भी कोई बुरी नही किंतु सुशीलजी विशुद्ध रूप से मुझसे मिलने आये थे। लिहाज़ा प्रसन्नता को व्यक्त करने के लिये शब्द गुम हो जाते हैं। जहां निस्वार्थ प्रेम भाव होता है वहां किसी के प्रति कोई अन्देशा या भ्रम की स्थिति भी नहीं होती। लिहाज़ा हमारी मुलाकात में औपचारिक जैसी कोई चीज नहीं थी। उन्हे लोकल में तुरंत घुसाया। रविवार था वरना उन्हे 'घुसाया' ना कह कर 'ठूंसना' कहता। फिर भी भीड थी। मेरे घर तक पहुंचने के लिये कल्याण से 20 मिनिट तो लगते ही हैं। उनका यह पहला अनुभव था। 22-23 और 24 तीन दिन हम साथ रहे। और मज़ा देखिये कि मेरी छुट्टियां भी थी, अन्यथा मुम्बइया व्यस्तता में सुशीलजी को पूर्ण समय देना कठिन हो जाता। सुशीलजी ने यह सब पहले ही देखभाल लिया था। जिसका नतीज़ा रहा कि 'बस मज़ा आ गया।' खूब बतियाये, घूमे-फिरे। फोटो-सोटो खींचे। क्या इसे महज़ यह माना जाये कि हमारी मुलाकात के पीछे सिर्फ यही कारण होगा? नहीं, कोई भी मुलाकात सिर्फ मुलाकातभर नहीं होती। बल्कि जीवन के किसी भी दिन के उसके उपयोग के लिये कुछ न कुछ 'अच्छा' प्रकृति तय कर देती है। 'अच्छा' इसलिये कि प्रकृति में बुरा कुछ भी नहीं होता। जो भी बुरा होता है या जो हमे लगता है वो हमारे द्वारा ही किया जा रहा कुछ अप्राकृतिक कर्म है। अब इस 'अच्छे' के मनोभाव में ही सही एक रिश्ता तो बन जाता है। जो जीवन में सुनहरी यादों के इतिहास में अपना एक अलग अध्याय जोडता रहता है। बहलहाल, अज़ीब संयोग के इस सिलसिले में यह कितना बढिया रहा कि अपनी 100वीं पोस्ट सुशीलजी की "अमिताभ यात्रा" को समर्पित है।
23 टिप्पणियां:
अमिताभजी,
मित्र आप जैसा हो, मैं तो बस यही जानता हूं। आपको जाना है। विद्वता की पहचान आप जैसों की संगत से हो जाती है। और कितने अच्छे तरीके से आपने संस्मरण लिख दिया है जो साहित्यिक पुरुष का परिचायक है। बहुत खूब। इस पोस्ट से सीख बहुत मिलती है। काश लोग भी समझेंगे?
अमिताभजी,
मित्र आप जैसा हो, मैं तो बस यही जानता हूं। आपको जाना है। विद्वता की पहचान आप जैसों की संगत से हो जाती है। और कितने अच्छे तरीके से आपने संस्मरण लिख दिया है जो साहित्यिक पुरुष का परिचायक है। बहुत खूब। इस पोस्ट से सीख बहुत मिलती है। काश लोग भी समझेंगे?
वाह मन प्रसन्न हो गया इस आत्मीय मुलाकात के बारे मे जानकर । शायद यह अवसर हमाए लिये भी जल्दी ही आये ।
खूब सजे होंगे रंग
जब बैठे होंगे दोस्त संग .... कुछ और तस्वीरें दिखाएँ हुज़ूर... सच कहूँ तो बहुत कम लोग हैं जो इस तरह से दोस्ती की हक़ अदायगी करते हैं... आप किस्मत वाले हैं ...
बधाई आपको इस १०० वीं पोस्ट के लिए ....आप की लेखनी निरंतर चलती रहे यही कामना करता हूँ ...
अर्श
वाह क्या बात है। हम पोस्ट के लिए मिट्टी पानी, खाद, बीज इकटठा ही कर रहे थे कि आपने पोस्ट ही लिख दी। और वो भी गहरी बातों से लबालब। सच पूछिए तो आपकी ये गहरी बातें हमें पसंद आई क्योंकि हम भी ऐसा ही मानते है।
" जो भी घटनायें घटनी होती है उसके घटने का क्रम न जाने कब से प्रारंभ हो चुका होता है। अज्ञात ही सही मगर एक एक तिनके जुडने लगते हैं। काल उसे बुनने लगता है। क्रमानुसार उसके छोटे से छोटे अंश आपस में टकराने लगते हैं और एक विशेष दिन को उद्घाटित करने के लिये पूरा का पूरा प्राकृतिक तंत्र जुट जाता है। कहते हैं इस प्रकृति में जो भी घटता है उसका कोई न कोई अर्थ अवश्य होता है। निरर्थक कुछ नहीं करती प्रकृति।"
अमिताभ जी सच यही है। आप ही सोचिए वो कौन सा दिन होता है जब हमारी बात नही होती है। एक ग़ुड मार्निग से बात शुरु होकर पता नही किस किस दुनिया की बातें करने लग जाते है। और अपन दोनों ने सोचा भी नही था कि हमारी मुलाकात इतनी जल्दी हो जाऐगी। पर जब मुलाकात की बात शुरु हुई तब से लेकर दिल्ली आने तक सब कुछ कैसे घटता रहा यात्रा कराने के लिए। ना जाने का टिकट हो रहा था और ना ही आने का। पर फिर ना जाने क्या हुआ कि सब कुछ होता चला गया। ये क्या है? कभी कभी सोचने लगता हूँ। और जैसा कि मैंने आपको बताया कि ऐसा अक्सर मेरे साथ होता है। और वहाँ पहुँचने के बाद जो बातों का सिलसिला चला बस चलता ही रहा.......
। और इस यात्रा का जादू ऐसा चला कि हम अपने घर के स्वीच ही भूल गए, बैग रखने की जगह ही भूल गए। ये मुलाकात जिंदगी भर याद रहेगी। और हमारे किस्से कहानियों में दर्ज रहेगी।
अजी हम 100वीं पोस्ट की बधाई देना ही भूल गए। चलिए इसी बात पर हम गरम गरम गुलाब जामुन मँगा रहे बस आप खाने आ जाईए।
Itnaa sundar shabd chitr... antarmanse nikle udgaar...! Maza aa gaya..ham saath,saath local me bhee sawar ho gaye..sahee kaha, Ravivaar tha,warna hame bhi 'thoonsaa' janeka anubhav milta...!
AAPKI 100 VI POST EK YAADGAAR SANSMARAN KE ROOP MEIN AAYE .... BAHUT ACHAA LAGA AAPKI AUR SUSHEEL JI KI MULAKAAT KE BAASE MEIN PADH KAR ... AGAR DIL MEIN CHAAH HO TO RAAH BAN HI JAATO HAI ....
100 वीं पोस्ट की बहुत बहुत बधाई संस्मरण दिल को छू गया अगली 100वीं पोस्ट के लिये अग्रिम बधाई
शतक के लिय तो बधाई..रिकार्ड्बुक्स वालों को परेशान करना आप जारी रखेंगे..भरोसा है..
संस्मरण के साथ कई अच्छी और गहरी बाते भी पढ़ने को मिली..काल की बुनाई..और आपकी मुलाकात..किस्मत की बात भी होती होगी.
waah !
bahut hi achchha laga jab aap dono ki is atmiy mulakat ke bare mein padha.
aise hi aap dono ki dosti bani rahe.
--------
kitni achchee panktiyan likhi hain aap ne--:
'जीवन के किसी भी दिन के उसके उपयोग के लिये कुछ न कुछ 'अच्छा' प्रकृति तय कर देती है। 'अच्छा' इसलिये कि प्रकृति में बुरा कुछ भी नहीं होता। जो भी बुरा होता है या जो हमे लगता है वो हमारे द्वारा ही किया जा रहा कुछ अप्राकृतिक कर्म है। अब इस 'अच्छे' के मनोभाव में ही सही एक रिश्ता तो बन जाता है।'
--behad prabhaavi.
Abhaar.
फिर कैसे कहें कि हमने कोई बडा नहार मार लिया|
bilkul desi post .are bhai itna apnapan to koi desi manush hi de sakta hai .aur ye nimadi khavat padhkar aur aannd agya .
atmeeyta aur prkrti ki upsthiti ne bahut bahut hi utkrsht banaya hai is post ko .
100vi post ke liye badhai aur aisa sundar lekhnn anvart chlta rhe iske liye shubhkamnaye .
पहले तो आपकी १०० वी पोस्ट के लिए हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनायें देना चाहती हूँ!
बहुत सुंदर लगा और मन प्रसन्न हो गया आपके दोस्त से मुलाकात के बारे में जानकर! दोस्त हो तो ऐसा जो ज़िन्दगी भर साथ दे! खुशकिस्मत होते हैं वो जिन्हें ऐसे दोस्त मिलते हैं! पर मैं ये समझती हूँ की आपसे ब्लॉग के दौरान मुलाकात हुई और आप मेरे भी अच्छे दोस्त बन गए! हर एक शब्द आपने बखूबी प्रस्तुत किया है जो दिल को छू गई!
प्रिय अमित ,१०० वीं पोस्ट की वधाई स्वीकारें ।मिलाप का प्रसंग पढ कर अच्छा लगा ,तस्बीर मे दौनो कितने प्रसन्न दिख रहे हो । सही है कभी लगता है दुनियां बहुत बडी है और कभी सिमट कर इतनी छोटी हो जाती है जैसे कि २२.२३ और २४ तारीख को हो गई थी ।
वाह......१०० पोस्ट और समुंदरी लहरों के बीच सुशील जी से मुलाकात ......मुबारक हो .....!!
ये हाथ में आपकी दी कोई कृति तो नहीं....?
अरे वाह...सौवीं पोस्ट और वो भी इस खूब अंदाज में।
सोच रहा हूँ मैं आपदोनों से कब मिल पऊंगा?
अमिताभ जी,
केवल सौंवी पोस्ट की बधाई दे रहा हौँ बाकी सब तो आपसे मिलके ही तय कर पाऊंगा।
सच है कि जब तक बदा ना हो अपना सोचा/चाहा कुछ नहि हो पाता है नही तो अब तक आपसे कितनी हि बार मिल चुका होता और भी ना जाने क्या-क्या करता बस बतियाते ही रह जाता हूँ।
अभी थोड़ी जल्दि है, फिर से आऊंगा और भी कुछ लिखना है.....
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
आप दोनों लोगों की आत्मीय मुलाकात के बारे में पढ़कर मान प्रसन्न हुआ. आपने जिस तरह से लेख लिखा वो मन को बहुत भाया
कुछ भी हो यह मुलाकात आपका शतक पूरा करा गई... सुशील जी मुंबई जाने से पहले बहुत बेकरार थे, जाने को.. कुछ महसूस तो किया, लेकिन आपकी यह पोस्ट पढने पर जाना की आखिर वो बेकरारी मुंबई जाने की नहीं... बल्कि मित्र अमिताभ से मिलने की थी...
सलामत रहे ये दोस्ताना हमारा...
मीत
अरे सुशील जी मुंबई आये और हमें आपने भनक तक ना लगने दी...ये तो बहुत ना इंसाफी है हम बुरे सही लेकिन इतने बुरे भी नहीं हैं...यकीन ना आये तो कभी मिल कर देखें...चलिए आप मिले और आपकी पोस्ट के माध्यम से हम उनसे मिल लिए...कोई बात नहीं लेकिन आगे इस बात का ध्यान रखिये...
नीरज
मैं इसे पढ़कर सिर्फ यही कहूंगा कि
प्रकृति की बेहतरीन कृति मानव और
मानव की अद्भुत कृति सृष्टिनियंता
जो है भी
जहां भी
रहे भी
सहे भी
इंसान नहीं है
इंसान ने बनाया है
भगवान वही है।
आशावान मानव
नव जनक का नियंता।
Kaahs ham bhi kabhi Amitaabh yaatra kar paate..
Dono Amitaabh(on) se mil paate.
Amit Ji filmon waale,
Amit Ji blog waale!!
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