सोमवार, 1 सितंबर 2014

दीवार के आहते में

इश्क़ के बीच जो दीवार खड़ी हुई है उसकी नींव धरने और एक एक ईंटें रखने में कई दिन व्यय हुए थे उसके।  दरअसल उसने ठान लिया था कि जिस इश्क के साथ वो न्याय नहीं कर पा रहा है उसके बीच दीवार खिंच जाना चाहिए। यह उसके लिए बेहतर है जिससे  उसने इश्क किया था।  फैसला यकीनन जानलेवा था।  जानलेवा मर जाना नहीं होता , जानलेवा जीते हुए मर जाना होता है या मरते हुए जीना होता है।  वह यह भी जान चुका था कि वो उसके लायक नहीं है। लायक होना चाहता था वो।  लायकी के लिए उसने दुनिया के साथ जंग की थी।  वो थका था , बहुत बहुत थका था , मगर हार नहीं मानी थी। हर बार जब भी उससे बातें हुई , बातों में पहला सवाल रहता था -क्या हुआ ? कोई नौकरी मिली ? कैसे गुजारा चलता होगा ? क्या करते हो तुम ? वह उसे समझाता था , अपने गम सुनाता था मगर इससे मुनाफ़ा क्या ? न उसकी किस्मत में जीत लिखी थी न ही वो उसके लिए वक्त निकाल सकता था।  जंग जारी थी। उसने फैसला किया कि अब वो उसे कुछ न तो सुनाएगा , न ही कहेगा।  क्योंकि उसके पास कहने को था ही क्या ? वह चुप हो गया।  चुप होना उसके लिए तकलीफदेह था मगर चुप होना था। दूसरी तरफ वो थी जो दुनिया देख रही थी। वह जानता था कि वो उससे बे पनाह मोहब्बत करती है किन्तु उसने अपनी मोहब्बत को सिगरेट के छल्लों में उड़ाना शुरू किया , कई बार टोका था उसने मगर वो नहीं मानी।  जब नहीं मानी तो उसके इश्क को पहली बार झटका लगा।  ऐसा क्या इश्क जो सिगरेट को अधिक महत्व दे , इस मानिंद कि जी कर करना क्या है ? जब तुम साथ नहीं रहे तब ये शरीर किस काम का।  मगर यह इश्क नहीं होता , जो सिगरेट के छल्लों में जल जल दिली सुकून पाए। एक तरफ वो जंग कर रहा था  उसके लायक होने के लिए दूजे वो इश्क के नाम पर खुद को तबाह किये जा रही थी ।  दीवार की पहली ईंट उसने तब ही रखी थी।
तुम्हे मेरी जरुरत नहीं रही।  उसने लिखा  तो जैसे उस पर बिजली कौंध कर गिरी।  जरुरत।  उसने इश्क क्या जरुरत के लिए किया ? जरुरत होती तो कितनी कितनी बार ऐसे ऐसे वक्त आये जब वो उसे छल सकता था।  जरुरत शब्द  ने उसे तोड़ दिया। उसके इश्क को समझ पाना शायद उसके बस का नहीं था , जो इतने इतने दिनों बाद वह भी महज अल्फाज के सहारे मिले बावजूद उसने उसकी बातों को अपने अंदाज़ में लिया और साफ़ साफ़ लिख दिया कि -ठीक है, ईश्वर तुम्हें खुश रखे।  वक्त के साथ साथ ईंटें एक के ऊपर एक रखती चली गयी और दीवार बनती  गयी।  वो आखिर उसके इश्क को जान ही नहीं पाई। या जानती भी हो ? उसके लिए ही उसने ऐसा लिखा हो कि दीवार मजबूती से खडी हो सके।  जो हो मगर खुदा सबूत के तौर पर खडा है बनी हुई उसी दीवार पर जो इश्क के बीच है।  जंग फिलवक्त भी जारी है।  हारा नहीं है वो।  और अगर वाकई उसे उससे इश्क है तो उसे ज़िंदा रहना होगा देखने के लिए उसकी जीत , क्योंकि ये जीत इश्क के बीच की दीवार ढहाएगी। उम्रदराज़ होकर इश्क करना भी तो रोमांच होता है। इसी ढही दीवार के आहते में बैठकर … 

2 टिप्‍पणियां:

Vinay ने कहा…

आपने तो तकनीक द्रष्टा पर आना ही छोड़ दिया

अमिताभ श्रीवास्तव ने कहा…

मुझसे लगभग सब छूट गया है , पुनः वापसी के प्रयास में हूँ ...आउंगा -आता रहूंगा ... :)