बुधवार, 25 दिसंबर 2013

दीवारे हैं, दीवारें ही दीवारें हैं

दीवारें ही दीवारें है 
मेरे अंदर/
कोइ दरवाजा नहीं /
चौखट / भूलभुलैया /
पूरी देह अपने मन और आत्मा के साथ 
बंदी है /

बाहर जाने की उत्कंठा
संसार देखने की ललक
हरी भरी वादियों में
दौड़ लगाने की इच्छा
घंटो गपशप /
घंटो बेफिक्री
न कोइ भय
न ही कोइ अज्ञात भय /

बस
सोचता हूँ
चाहता हूँ
लिखता हूँ
पढता हूँ
दीवारों के अंदर /

दीवारों में
विश्वासघात है
धोखा है
आदमी को अकेला कर
तालियों की गूँज है/
और बस कर्णभेदी इस
गूँज में चलती -धड़कती
डरती -कांपती साँसे हैं /
जो दीवारों से टकराती हैं
लौटती है और धंसती रहती है मुझमें /
प्रतिक्षण /

क्योंकि चारों तरफ
दीवारे हैं, दीवारें ही दीवारें हैं /

1 टिप्पणी:

संजय भास्‍कर ने कहा…

वाह! बहुत खूब लिखा है आपने! गहरी सोच के साथ शानदार रचनाएँ और साथ ही उम्दा प्रस्तुती!