कंधे पर आ गया है
ढो रहे से लगते हैं।
है इसलिये बना हुआ है,
मगर जिन्दा लाश की तरह
वेंटीलेटर पर पडा।
न कोई रोमांच
न ही उत्साह,
न मिलने-जुलने की वो
मीठी सी तडप,
मानों खून ठंडा हो गया है,
दुनियाई गरमी
'उसके' सारे धर्मों को
जला चुकी है।
सच तो यह है कि
अब वो बात नहीं रही तुममे,
या उस बात को कहीं कैद कर
दफन करने की कोशिश है।
हां, तुम्हारी आंखों में
आधुनिक जगत का
कलात्मक काजल है,
खूबसूरत है मगर
जिसमे मेरा देहाती
गांवठी-गंवार सा मन
प्रतिबिम्बित नहीं होता।
बातें हैं, खूब सारी
मगर जो मन को छू ले
ठंडी सी बयार से
रोम रोम रोमांचित कर दे
वह विलक्षणता धूमिल हो गई है।
न इधर, न उधर
दोनों तरफ से जमी हुई काई
फिसलन पैदा कर चुकी है।
और जो असल में
होनी चाहिये वो फसल
फासलों के बीच सूख कर
जमींदोज़ होने लगी है।
फिर भी
बेहतर लगता है और और ढोने में
सुकून मिलता है शायद,
क्योंकि इसके आदी होने लगे हैं हम-तुम-सब।
8 टिप्पणियां:
कहते हैं रिश्तों में बर्फ जमने लगे तो समय रहते उपाय करना आवश्यक होता है.
उकताहट ,बेबसी या विवशता..ऐसे में जीवन आखिरी सांस तक जीना चुनौती है..मन की ऐसी ही कशमकश को अभिव्यक्त करती एक बेहतरीन कविता .
बातें हैं, खूब सारी
मगर जो मन को छू ले
ठंडी सी बयार से
रोम रोम रोमांचित कर दे
वह विलक्षणता धूमिल हो गई है।
बदलते मूल्यों और नए समीकरणों को तलाशती सुंदर कविता.
फिर भी
बेहतर लगता है और और ढोने में
सुकून मिलता है शायद,
क्योंकि इसके आदी होने लगे हैं हम-तुम-सब ...
बहुत दिनों बाद अमिताभ जी आज आपकी कविता पढ़ी ... समय के बदलाव ... रिश्तों की एकरस्ता ... ढोने की विवशता ... ये सच है ,की कभी कभी दर्द ही मज़ा देता है ... पर जल्दी ही ऐसे माहॉल को बदल देना अच्छा होता है ...
आशा है आप और घर में सब ठीक होंगे ... मेरी शुभकामनाएँ हैं ...
सच के करीब। ऐसा लग रहा है जैसे भावनाएं मेरी है और शब्द आपके।
अब मीठी सी तड़फ का स्वाद लोग भूल गए है। वैसे वो मीठी तड़फ अभी भी जिंदा है हम.....।
बातें हैं, खूब सारी
मगर जो मन को छू ले
ठंडी सी बयार से
रोम रोम रोमांचित कर दे
ऐसी बातों का अकाल पड गया है जी। ना जाने क्यूँ। लगता है कुछ पाग...की कमी हो गई है।
जो बचे है उन्हें जिदंगी की फू फां ने आदमी बना दिया है।
मेरा बिना पानी पिए आज का उपवास है आप भी जाने क्यों मैंने यह व्रत किया है.
दिल्ली पुलिस का कोई खाकी वर्दी वाला मेरे मृतक शरीर को न छूने की कोशिश भी न करें. मैं नहीं मानता कि-तुम मेरे मृतक शरीर को छूने के भी लायक हो.आप भी उपरोक्त पत्र पढ़कर जाने की क्यों नहीं हैं पुलिस के अधिकारी मेरे मृतक शरीर को छूने के लायक?
मैं आपसे पत्र के माध्यम से वादा करता हूँ की अगर न्याय प्रक्रिया मेरा साथ देती है तब कम से कम 551लाख रूपये का राजस्व का सरकार को फायदा करवा सकता हूँ. मुझे किसी प्रकार का कोई ईनाम भी नहीं चाहिए.ऐसा ही एक पत्र दिल्ली के उच्च न्यायालय में लिखकर भेजा है. ज्यादा पढ़ने के लिए किल्क करके पढ़ें. मैं खाली हाथ आया और खाली हाथ लौट जाऊँगा.
मैंने अपनी पत्नी व उसके परिजनों के साथ ही दिल्ली पुलिस और न्याय व्यवस्था के अत्याचारों के विरोध में 20 मई 2011 से अन्न का त्याग किया हुआ है और 20 जून 2011 से केवल जल पीकर 28 जुलाई तक जैन धर्म की तपस्या करूँगा.जिसके कारण मोबाईल और लैंडलाइन फोन भी बंद रहेंगे. 23 जून से मौन व्रत भी शुरू होगा. आप दुआ करें कि-मेरी तपस्या पूरी हो
मन के भावों को बखूबी लिखा है
bahut sunder shabdon main likhi shaandaar rachanaa.badhaai aapko/
Nice poem.
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