लगभग खंडहर होते जा रहे
इस शरीर के स्टोर रूम को
साल में महज़ एक बार खोलता हूं।
जब भी दरवाजा खोल कर मैं अन्दर घुसता हूं
रैक में सलीके से जमाये गये
दिन और रातों का
हिसाब रखते रजीस्टर के पन्ने
फडफडा कर उडने लगते हैं।
मुझे अच्छा लगता है क्योंकि
वे इस दिन खिलखिलाने लगते हैं।
घंटो बैठा रहता हूं उनके साथ..
सन 1967 की रात से लेकर
19 अगस्त 2010 तक के इस समय तक
का पूरा पूरा हिसाब है।
और जैसे जैसे पल बीत रहे हैं
पन्नों पर चढते जा रहे हैं।
अमूमन मैं दिन का वो पन्ना निकालता हूं
जब अपने शहर को छोड महानगर में आया था।
सिर्फ शहर नहीं छूटा था
छूट गया था बहुत कुछ...
पता नहीं किस बचत में से
पिताजी ले आते थे नये कपडे
और मां पानी मिले दूध को
ओटा ओटा कर खीर बनाती थी।
ललाट पर टीका लगा कर
चारों दिशा में धौक दिलवाती थी मां
और पीठ पर हाथ धर
अपने जीवन के मानों सारे
आशीर्वाद उढेल दिया करती थी।
मैं नहीं जानता था तब इन सब का महत्व
आज जब इस दिन
अपने स्टोर रूम में बैठा दिन के उस
पन्ने को खोल बैठा हूं तब जाना है इसका महत्व।
तभी ..तभी..बरबस ही आंखों से अश्रुदल फूट पडते हैं
और मैं इन्हें पौंछ कर इस महानगर से
फोन करता हूं।
क्योंकि आज यदि मैं इन दिन और रात को
बटौर संजो पा रहा हूं तो
उन्हीं की बदौलत जिनके हाथ मेरे शीश पर हैं
और जिनके आशीर्वादों से मेरी सांसे गति पाती है।
बिमारी ... प्रेम की ...
1 हफ़्ते पहले
17 टिप्पणियां:
उत्कृष्ट रचना, बधाई.
अमिताभ जी किसी खास दिन पर अपने धरती के भगवान को यूँ कौन याद करता है आजकल
। सच मन भावुक हो गया। जिंदगी के पन्नों को यूँ पढना और उन्हें जाँचना परखना, क्या खोया , क्या पाया। यूँ ही जी रहे है या कुछ नया अलग सा कुछ कर रहे है। कहीं पढा था कि जिंदगी की किताब ऐसी लिखो कि हर कोई बाचे। रचना में ताजगी है, सादगी है, यादों की बनागी है, और माँ पिता के प्यार के छींटे हैं।
सिर्फ शहर नहीं छूटा था
छूट गया था बहुत कुछ...
इस "बहुत कुछ" में आँखे नम होकर बोलने लगती है। नए कपडे और खीर का मतलब अब जान पाया हूँ जब बेटी के लिए ......... सच भावुक कर गई आपकी ये रचना।
Aapne to saleequese rakhe hain..hamare to betarteeb faile hue hain..kabhi is sirese satate hai,to kabhi us!
अमिताभ जी,
भावुक कर गई आपकी रचना.
भावपूर्ण रचना
आभार
बहुत सुन्दर और भावों से भरी रचना ...मन भीग गया ...माता पिता के होने का एहसास ही कितना सुकून दे जाता है ...
पता नहीं किस बचत में से
पिताजी ले आते थे नये कपडे
और मां पानी मिले दूध को
ओटा ओटा कर खीर बनाती थी।
कितनी ही बातें याद आ जाती हैं ...अच्छी रचना ..
हिसाब रखते रजीस्टर के पन्ने
फडफडा कर उडने लगते हैं।
मुझे अच्छा लगता है क्योंकि
वे इस दिन खिलखिलाने लगते हैं।
ये खिलखिलाना बहुत अच्छा लगा...
और कविता के अंत तक आते आते मन जाने कहाँ खो गया....
आपका जन्मदिन है क्या...?
पता नहीं किस बचत में से
पिताजी ले आते थे नये कपडे
और मां पानी मिले दूध को
ओटा ओटा कर खीर बनाती थी।
hatt off to u sir ji
shaadar kirti
रजिस्टर , पन्ने ,यादें , सलीके से रखे दिन रात ..सब बड़े सलीके से यूं मुखर हो गए ..अच्छा लिखा है ....
ये कुछ ऐसे पल होते हैं ज़िन्दगी के जिनके बिना जीवन अधूरा होता है और उन मे ही इंसान अपना सारा जीवन जी लेता है………………दिल को छूती बेहद भावनात्मक अभिव्यक्ति।
आपकी या मर्मस्पर्शी रचना भावुक कर गयी...
इन स्टोर रूमों को खोलते रहना चाहिए सबको...
जड़ों से जुड़े रहने के लिए,मनुष्य बने रहने के लिए ...बहुत ही आवश्यक है यह...
सुन्दर रचना.
कितने गहरे भाव और व्यथा सहेजे हुए ये प्रस्तुति भावुक कर गई आपके स्टोर रूम की तरह यहाँ भी यादों का पुलिंदा सहसा ही जीवंत हो उठा है
अमिताभ जी ... बहुत की गहरी बातें संजोई लगती हैं पुराने दस्तावेज़ों में ...
अक्सर इंसान बार बार उसी पुरानी जगह को तलाश करता है .... गुज़रे हुवे वक़्त की यादों को ढूँढने का प्रयास करता है ... महाणाग की आपाधापी में धूल चड़ी यादों को सलीके से उठा कर फिर सलीके से रख देता है .... अपनो की यादें ही जीना का संबल बनती हैं ... इन को सॅंजो कर रखना ये जीवन की सबसे बड़ी पूंजी हैं ....
बहुत संवेदनशील, हृदयस्पर्शीय रचना है .... अपनों से दूर रहने का दर्द बहुत गहरे रहता है ...
छोटे से शहर की भावनाए बड़ी मासूम होती है |
देर से ही जन्मदिन की बहुत बहुत बधाई |खीर का स्वाद मिठास और माता पिता का आशीर्वाद सदैव बना रहे |
शुभकामनाये |
काश हर बच्चा अपनी जिन्दगी के स्टोर रूम में घुस कर कभी उन आशीर्वादों को, उन उम्मीदों को देख पाता जिसे आप देख पा रहे हैं। बहुत ही सुन्दर रचना
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