जी हां, गज़ल को लेकर पत्र-पत्रिकायें थोडी कंज़ूस तो रहती हैं किंतु गज़ल निर्बाध रूप से बह रही हैं, इसे भी स्वीकार किया जाना चाहिये। मुझे लगता है कि गज़ल को अपनी दिशा का भान है। उसके अपने दीवाने हैं। वर्ग विशेष होने का यह फायदा भी है कि उसके रूप, रंग, उसकी रवानी, फसाहत और कायदे पर अभी तक किसी प्रकार की ज्यादती नहीं हुई है, और विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि उसके मुस्तकबिल पर कभी कोई आंच नहीं आने वाली। बहरहाल, आज मैं आपका एक ऐसे शायर से परिचय करा रहा हूं जिनके बारे में आज की गज़ल प्रेमी पीढी शायद न जानती हो। जिन्होने रिवायती और क्लासिकी शायरी से हटकर समाज और मुल्की हालात को अपने मखसूस अन्दाज़ में पेश किया, जिनकी शायरी सेहतमन्द और संज़ीदा अदब से हमेशा लबरेज़ रही। जनाब मुस्तफा हुसैन 'मुश्फिक'। रायगढ (छत्तीसगढ) के गांजा चौक का एक जानापहचाना नाम। अखिल भारतीय कवि सम्मेलनों, आकाशवाणी आदि मंचों की रौनक। हिन्दी, ऊर्दू और छत्तीसगढी में समान गति से लिखने वाले शायर, गीतकार और कवि। गज़ल क्षेत्र की यह बहुत बडी क्षति है कि मुश्फिक साहब इस दुनिया में नहीं हैं। महज़ चौथी तक की शिक्षा और जीवनयापन के लिये टेलरिंग का व्यवसाय। ताउम्र गुरबत के साये में रहे, और शायद यही वजह रही कि उनके अनुभव ने जीवन को कलाम में बान्धकर कागज़ पर हूबहू उतार दिया। उन्हें कभी गोपालदास नीरज की बगल मिली तो कभी रूपनारायण त्रिपाठी, मुकुटबिहारी सरोज जैसे उम्दा फनकारों के बीच बैठ कर शायरी करने का मौका। यानी आप जान ही गये होंगे कि डिग्रियां हासिल कर लेने वाला ही पढा-लिखा नहीं माना जा सकता, बल्कि कबीर जैसे अनेक लोग भी साहित्य के पुरोधा हैं, उनमें से मैं मुश्फिक को भी एक मानता हूं। पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहने वाले मुश्फिक के लिये गज़ल पर कोई किताब टेडी खीर ही थी, साप्ताहिक हिन्दुस्तान में 26 दिसम्बर 1959 को पहली रचना प्रकाशित हुई थी, इसके बाद रचनाये छपती रहीं, गज़ले वे कहते, सुनाते रहे मगर उन्हें किताबी शक़्ल कभी नहीं दे पाये। चार दशक बाद यह सब भी हुआ। 1 मई 1998 को "मेरी फिक़्र शायरी" के नाम से उनका कलाम किताबी शक़्ल में शाये हुआ। इसके दो वर्ष पूर्व मेरे विवाह के अवसर पर वे भी शामिल हुए थे। मुझे नहीं पता था कि वो अंतिम मुलाकात होगी। खैर, उनकी किताब और स्मृतियां मौज़ूद हैं।
जनाब मुश्फिक़ ने जैसी जिंदगी देखी उसे ठीक वैसे ही उतार दिया। मुझे लगता है कि आदमी मुख्तालिफ परेशानियों की गिरफ्त के बावज़ूद, अपनी जीने की ललक नहीं छोडता, वो मुसीबतों से दो चार होता है और हंसने की पुरजोर कोशिशे करता रहता है, मुश्फिक कहते हैं कि-
" इस गरानी में भी, नातवानी में भी
लोग जिन्दा हैं, जिन्दादिली देखिये।"
गज़लों में यह खासियत तो सनी हुई है कि वो जीवन के करीब, बिल्कुल सट कर चलती है। खैर, मुश्फिक ने उम्र के करीब छह दशक बाद जब थोडी राहत महसूस की ही थी जहां वो कह सके कि-
" कितने मलाल हमको जमाने से मिले हैं
अब जाके लोग ठीक ठीकाने से मिले हैं।"
कि सांसों ने उनका साथ छोड दिया। बहरहाल, आज उनकी वो गज़ल जो मुझे ज्यादा पसन्द है आप तक पहुंचा रहा हूं, शायद मेरी ही तरह आपको भी पसन्द आयें?
इंसा भी मसीयत का अनमोल खिलौना है
हर खेल का आखिर है और खेल भी होना है।
फितरत का करिश्मा है जादू है ना होना है
सोना कभी मिट्टी है मिट्टी कभी सोना है।
जो दिल पे गुजरती है नग्मों में पिरोना है
पत्थर के कलेजे को हंसना है न रोना है।
गुजरी हैं कई सुबहें हर शाम गुजरती है
हम खानाबदोशों का तकिया न बिछौना है।
वीराना ही अच्छा है बदकार इमारत से
सुख चैन की नींदे हैं और ख्वाब सलोना है।
जिसने निबाह दी है हर गर्दिशे दौरां से
उस सच को ढूंढना भी अपनों ही को खोना है।
मुद्दत से ये हसरत है हो ताबे नज़र 'मुश्फिक'
फिर उसके नज़ारों से हो जाये जो होना है।
सपना, काँच या ज़िन्दगी ...
3 दिन पहले
29 टिप्पणियां:
... bahut sundar, prabhaavashaali prastuti,.... shukriyaa !!!
Bahut sundar...
जिसने निबाह दी है हर गर्दिशे दौरां से
उस सच को ढूंढना भी अपनों ही को खोना है।
" वाह.... बेहद सुन्दर प्रस्तुती.......ये शेर बहुत भाया......जिन्दगी के बेहद करीब.."
regards
लाजवाब प्रस्तुति धन्यवाद्
गुजरी हैं कई सुबहें हर शाम गुजरती है
हम खानाबदोशों का तकिया न बिछौना है ...
सच है पूर्ण आज़ादी तो नही है .......... पर ये आज़ादी फिर से संघर्ष कर के ही मिल सकती है .......... जनाब मुश्फिक़ साहब की ने जीवन को इतने करीब से देखा है .......... हर दौर की जद्दोजेहद से रूरू हुवे हैं और ये बात उनकी इस ग़ज़ल में सॉफ नज़र आती है ........... जीवन दर्शन को स्पष्ट बयान कर रही ये ग़ज़ल .........
अमित जी ।पहली बात ये कि आप उर्दू भाषा पर काफ़ी दखल रखते है । मैने इनका नाम पहली बार सुना और गजल आपके द्वारा प्रस्तुत न की जाती तो पढ भी नही पाता । आजकल संग्रह के प्रकाशित होने और साहित्य प्रेमियों को उपलब्ध कराने की प्रक्रिया से तो आप परिचित है ही ।ऐसे और भी शायर कवि होगें जो प्रकाश मे नही आये जब कि ऐसे ऐसे कमाल के शेर और कवितायें रची होंगी ।आपने गजल उपलब्ध कराई इसे नोट कर लिया है वाकई हर शेर बहुत अच्छा है
फितरत का करिश्मा है जादू है ना होना है
सोना कभी मिट्टी है मिट्टी कभी सोना है।
सुन्दर अभिव्यक्ति।
इंसा भी मसीयत का अनमोल खिलौना है
हर खेल का आखिर है और खेल भी होना है।
फितरत का करिश्मा है जादू है ना होना है
सोना कभी मिट्टी है मिट्टी कभी सोना है।
Wah! Kya gazal hai ! Shkriya ru-b-ru karaneke liye!
बहुत ही ख़ूबसूरत! आपने बड़े ही सुन्दरता से प्रस्तुत किया है! पढ़कर बेहद अच्छा लगा! इस बेहतरीन पोस्ट के लिए बधाई!
जिसने निबाह दी है हर गर्दिशे दौरां से
उस सच को ढूंढना भी अपनों ही को खोना है।
बहुत सुन्दर पोस्ट.
गुजरी हैं कई सुबहें हर शाम गुजरती है
हम खानाबदोशों का तकिया न बिछौना है।
वीराना ही अच्छा है बदकार इमारत से
सुख चैन की नींदे हैं और ख्वाब सलोना है।
वाह अमिताभ जी ,
क्या क्या बेहतरीन रचनाएँ और फनकारों से रूबरू करा रहे हैं आप इन दिनों ! मज़ा आ गया !
बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल ! और ग़ज़लें भी सुनने को मिलें इसी तरह ....:):)
बहुत बहुत धन्यवाद !
एक ऐसे नायाब हीरे को अंतरजाल पर लोगों से अवगत कराना बहुत सुखद लगा. जनाब अश्फ़ाक़ साहब को उनकी रूह को जन्नत मिले. आप जैसे अनुभवी लेखक की क़लम से उनके जीवन का एक छोटा सा अंश और उनकी शायरी का नमूना पढ़ कर आँखें नाम हो गईं.
इंसा भी मसीयत का अनमोल खिलौना है
हर खेल का आखिर है और खेल भी होना है।
जो दिल पे गुजरती है नग्मों में पिरोना है
पत्थर के कलेजे को हंसना है न रोना है।
निहायत खूबसूरत!
एक सुन्दर प्रस्तुति के लिए बधाई.
जो दिल पे गुजरती है नग्मों में पिरोना है
पत्थर के कलेजे को हंसना है न रोना है। vaise to hrek sher lajvab hai kitu yh sher dil ko choo gya .bahut hi sleeke se gjl ke khubsurti ka varnan kiya hai .urdu aur hindi dono ke shbdo ke dhani hai .
shubhkamnaye
अमिताभ जी अपनी पोटली में से क्या खजाना निकाला है जी। ज्यादा कुछ कह नही पाऊँगा। बस इतना कहूँगा कि सुबह सुबह पूरे दिन का टानिक मिल गया जी। हर शेर दिल को छू गया।
जो दिल पे गुजरती है नग्मों में पिरोना है
पत्थर के कलेजे को हंसना है न रोना है।
और ये शेर कुछ अपन के नजदीक सा लगा।
Bahut sunder prastuti...
एक बेहतरीन शायर और उनके क़लाम से परिचित कराने के लिये आभार और बधाई।
मुस्तफ़ा हुसैन और उनके अशआरों से मिलवाने का शुक्रिया अमिताभ जी...उन्हें पहले कभी पढ़ने का मौका नहीं मिला था।
वैसे ऊपर आपकी इस बात से "गज़ल निर्बाध रूप से बह रही हैं" से तनिक असहमति है अपनी। आप जानते हैं ना क्यों कह रहा हूँ मैं ऐसा...
जिसने निबाह दी है हर गर्दिशे दौरां से
उस सच को ढूंढना भी अपनों ही को खोना है।
मुद्दत से ये हसरत है हो ताबे नज़र 'मुश्फिक'
फिर उसके नज़ारों से हो जाये जो होना है।
Anupam alfaaz hain!
मुश्फिक़ साहब का यह कलाम अच्छा लगा ।
ग़ज़ल जैसी कई चीजें निर्बाध रूप से बह रही हैं...
किसी और ही मूड में आये थे हम यहाँ.....लेकिन इस रचना में कई ख्याल मन को गहरे तक छू गए...
" कितने मलाल हमको जमाने से मिले हैं
अब जाके लोग ठीक ठीकाने से मिले हैं।"
बहुत लगा दिल को..
manu' be-takhallus'
ये कमेन्ट हमारा है साहब..
आजकल कभी कभी अनाम भी हो जाता है..
पर हम उसे दोबारा वेरी फाई जरूर करते हैं...
बेनामी ने कहा…
ग़ज़ल जैसी कई चीजें निर्बाध रूप से बह रही हैं...
किसी और ही मूड में आये थे हम यहाँ.....लेकिन इस रचना में कई ख्याल मन को गहरे तक छू गए...
" कितने मलाल हमको जमाने से मिले हैं
अब जाके लोग ठीक ठीकाने से मिले हैं।"
बहुत लगा दिल को..
manu' be-takhallus'
Saturday, 30 January, 2010
गुजरी हैं कई सुबहें हर शाम गुजरती है
हम खानाबदोशों का तकिया न बिछौना है ...
कलाम अच्छा लगा सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए बधाई!
जिसने निबाह दी है हर गर्दिशे दौरां से
उस सच को ढूंढना भी अपनों ही को खोना है।
मुद्दत से ये हसरत है हो ताबे नज़र 'मुश्फिक'
फिर उसके नज़ारों से हो जाये जो होना है। ...mahan shayar ki achchhi rchna se rubroo karwane ka shrey aapko jata hai....sadhuwad
अमित जी, जनाब मुस्तफा हुसैन 'मुश्फिक' को पढ़ाने के लिए शुक्रिया . बहुत सुंदर गज़ल है, सभी शेर लाज़वाब हैं. एक पर शंका है कृपया समाधान दें..
फितरत का करिश्मा है जादू है ना होना है
सोना कभी मिट्टी है मिट्टी कभी सोना है।
..कहीं मूल शेर में जादू है न टोना है तो नहीं है!
..आभार.
आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आयी और देर से आने का अहसास हुआ
बेमिसाल,लाजवाब बस और क्या लिखूं
" इस गरानी में भी, नातवानी में भी
लोग जिन्दा हैं, जिन्दादिली देखिये।"
Inki ghazalon se parichay karane ka shukriya.
आभार इस परिचय का..जनसत्ता वाले आलेख से इधर आया.
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