मंगलवार, 28 अप्रैल 2015

गली









उस घर से 
कोई पांच घर छोड़ 
एक गली थी , 
गली के बाद 
दो  घर छोड़ उसका घर। 
घरों की इस कतार को  
गली विभाजित करती थी। 
मगर निगाहें विभाजन की इस रेखा से पार 
दोनों घरो की चौखट पर बिछी होती थी।  
इधर से भी-
उधर से भी। 
दरवाजे खुलने का 
बेसब्र  इन्तजार  
मुस्कुराते चहरे के रूप में 
अक्सर प्रतिफल देता था। 
कितने ही सपनो से 
लिपे जाते रहे थे आँगन और 
बनाई जाती रही थी 
प्रेम रंगोलियां।  
अब  कोई नहीं है ,
न वो , न मैं। 
सूने पड़े हैं आँगन , 
घर, दरवाजे।  
किन्तु 
घरों की कतार के बीच खींची गली 
आज भी है वहां 
और उनके -मेरे  जीवन में भी। 

2 टिप्‍पणियां:

रचना दीक्षित ने कहा…

क्या कहूँ ? क्या कुछ तो कह दिया है आपने बस मेरे चेहरे पर एक धूमिल सी मुस्कान है और मौन.

अमिताभ श्रीवास्तव ने कहा…

शुक्रिया रचना जी :)