देश का प्रधानमंत्री तब स्वीकार करता है, तब अपनी जिम्मेदारी मानता है जब सुप्रीम कोर्ट उसके कान उमेठता है। अगर मान लीजिये ऐसा नहीं होता, अदालत बीच में नहीं आती तो क्या कोई जान पाता कि एक धीर-गंभीर, सुशील, बुद्धिमान दिखाई देने वाले प्रधानमंत्री के दो चेहरे भी हैं? आप मान सकते हैं कि यह कैसा मुखिया है जो जैसा दिखता है वैसा है नहीं। अब तक सिर्फ माना जाता था किंतु अब तो खुद उनके स्वीकार कर लेने के बाद स्थितियां साफ हो गई कि बेशर्मी की कितनी हद है। पी जे थॉमस की नियुक्ति अवैध थी, क्या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह नहीं जानते थे? यदि नहीं जानते थे तो क्यों नहीं जानते थे? जानने के लिये जब सुषमा स्वराज ने अपनी आपत्ति जाहिर की और मामले की तमाम जानकारी दी तब भी उनकी आंखे बंद क्यों रही? और जब सुप्रीम कोर्ट ने हंटर चलाया तब ही उन्हें अपनी जिम्मेदारी का अहसास क्यों हुआ? और क्या इस अहसास के बाद वे प्रायश्चित करेंगे? यदि करेंगे तो वो प्रायश्चित क्या होगा? जो भी होगा, किंतु यह सच है कि अगर विपक्ष या यह देश उन्हें सबसे अशक्त प्रधानमंत्री का तमगा देता है तो कोई गलती नहीं करता है। आप अगर मनमोहन सिंह को इसके बाद भी बेहतर प्रधानंमंत्री मानते हैं तो कम से कम अब आपको अपनी राय बदल लेनी चाहिये।
दिलचस्प होगा यह जानना कि मनमोहन सिंह के इस कबूलनामे के बाद राजनीतिक परिदृष्य कैसा होगा? वैसे भी यूपीए सरकार के दिन गर्दिश में दिखाई दे रहे हैं उपर से उसके सबसे मज़बूत धडे करुणानिधि ने भी अपना समर्थन वापस लेने की बात कर दी है, उधर पहले ही कांग्रेस भ्रष्टाचार के दलदल से उबरने का असफल प्रयत्न कर रही है और एक के बाद एक कई खादीधारी कालेधन के जाल में फंसते नज़र आ रहे हैं। ऐसे कार्बनयुक्त माहौल में अब खुद मनमोहन सिंह के हाथ कालिख लगती हैं तो यकीनन यह कहा ही जा सकता है कि सरकार की दाल में काला ही नहीं बल्कि पूरी दाल काली है।
बहरहाल, क्यों थॉमस को लेकर सरकार ने सीवीसी की गरिमा का ख्याल नहीं रखा? क्यों मनमोहन सिंह मौन रहे? और यदि अब जाकर उन्होंने जिम्मेदारी कबूली है तो इसकी सजा क्या है? जिम्मेदारी कबूलना ही यह साबित करता है कि मनमोहन सिंह पहले से जानते रहे हैं कि थॉमस नामक चीज क्या है? यानी देश को अंधेरे में रखा गया, क्यों रखा गया? ऐसे कितने ही सवाल अपनी तेज बौछारों के साथ प्रधानमंत्री के माथे पर ओले की तरह पड रहे हैं। सरकार ने जो काम किया है वह निस्संदेह शर्मनाक है, विपक्ष तो यह चाहेगा ही फिर भी जनमानस मानता है कि अगर प्रधानमंत्री में थोडी भी शर्म शेष है तो अपने पद से हट जाने की हिम्मत दिखाई जा सकती है, मगर सत्तालोभ और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी कांग्रेस के लिये यह संभव नहीं। वो तो शुक्र है कि हमारे देश में न्यायपलिका का इमानदाराना रौब चलता है अन्यथा देश का तो भगवान ही मालिक होता। जब राजा ही सो रहा हो तो उसके मंत्री-संत्री सब इसका फायदा उठाते हैं, थॉमस जिस दादागिरी के साथ अपने पद पर अडिग थे वो स्पष्ट करता है कि उनके सिर पर किसी बलवान का वरदहस्त था। और यह बलवान कौन? प्रधानमंत्री के अतिरिक्त और कौन हो सकता है? दिक्कत यह है कि अब वे ऐसा मान भी नहीं सकते कि वे कुछ नहीं जानते थे, या उन्हें समझने में देर लगी, या फिर वे किसी दबाव में थे। अफसोसजनक तो यह भी है कि 3 सितंबर 2010 से आज तक के इतने समय के बाद तथा इतने वाद-विवाद के बाद जब अदालत की फटकार लगती है तब उन्हें अपने फर्ज़ की याद आती है और वे अपनी जिम्मेदारी स्वीकार करते हैं। पर हास्यस्पद यह भी है कि एक ओर सरकार कह रही है कि थॉमस हटाये जा चुके हैं किंतु अभी भी यह भ्रम कायम है (सरकार सोमवार को संसद में जवाब देने वाली है) क्योंकि थॉमस महोदय की ओर से अपने पद से इस्तीफे की बात अभी भी बाहर नहीं आई है। उन्होंने इस्तीफा दे दिया है, इसका कोई सबूत दिखाई नहीं दिया है यानी यह एक घिनौना मज़ाक नहीं तो क्या है? देश का सीधे सीधे मखौल उडाया जा रहा है, और अपनी दादागिरी व्यक्त की जा रही है, मानो थॉमस महोदय देश और देश की न्याय व्यवस्था से कोई उपर के आदमी हैं। ऐसे आदमी को तुरंत घसीटकर चौराहे पर लाकर फटकार लगाने की जरुरत होती है, किंतु ऐसा हो नहीं रहा। क्यों नहीं हो रहा? क्योंकि निश्चित रूप से थॉमस के पास कोई जादू की छडी है जिससे सरकार सहमी हुई है। थॉमस की नियुक्ति के नेपथ्य में यह तय है कि कोई बहुत बडा गेम छुपा है जो सरकार खेलने जा रही थी। पर देश का सौभाग्य है कि उसके लोकतंत्र के सबसे मज़बूत स्तंभ न्यायपालिका को डिगाना संभव नहीं है।
केरल के 1990 में हुए पामोलीन आयात घोटाले के आरोपी हैं थॉमस। उनका दामन दागदार तो है ही साथ ही उन्हें तो किसी प्रकार की सतर्कता या जांच-पडताल का अनुभव भी नहीं है, जो किसी भी सीवीसी के करतार के लिये आवश्यक होता है, बावजूद उनकी नियुक्ति को लेकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पी. चिदंबरम ने जल्दबाजी दिखाई साथ ही नियुक्ति के लिये गठित पैनल की तीसरी सदस्य सुषमा स्वराज की बार-बार मनाही को सिरे से खारिज करते हुए थॉमस की नियुक्ति पर ठप्पा लगा दिया गया। जिस व्यक्ति पर एफआईआर दाखिल हो, जिसकी जमानत विचारधीन हो, जिस पर भ्रष्टाचार का मामला चल रहा हो क्या उससे आप उम्मीद कर सकते हैं कि वो सीवीसी के तहत जो भी कार्य करेगा पाक-साफ करेगा? दरअसल यह सब 2 जी स्पेक्ट्रम जैसे बडे-बडे घोटाले पर पानी फेरने और देश को गुमराह करने की कवायद ज्यादा जान पडती है जो सरकार के भ्रष्ट रूप को दबा सके। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने यह सब आखिर क्यों किया? किसके दबाव में किया? क्यों उन्होने देश को भुलावे में रखने का प्रयत्न क्या? और अब यदि उन्होंने अपनी जिम्मेदारी कबूली है तो वे इसका उदाहरण किस रूप में देंगे? क्या वे जानते हैं कि खुद को अगर वे इमानदाराना साबित करना चाहते है तो उन्हें पहले अपनी मजबुरी बयां करनी होगी, फिर अपने उपर पडे विशेष दबाव का खुलासा करना होगा। मगर विडंबना यह है कि ऐसा होगा नहीं, क्योंकि यदि ऐसा हुआ तो कांग्रेस का कचूमर निकल जायेगा। ऐसी कांग्रेस के पास हिम्मत नहीं कि वो देश के लिये अपना बलिदान दे सके, इसका मतलब यह हुआ कि देश को अब नया खेल देखने को तैयार हो जाना चाहिये। आप यूपीए गठबंधन का कालिख लगा दामन किसी सर्फ एक्सेल से धुला हुआ देख सकते हैं। क्योंकि यह तय है कि सरकार अब थॉमस की जगह नये की नियुक्ति कर देगी और इस पूरे विवाद को पीछे छोड देगी। प्रधानमंत्री की ली गई जिम्मेदारी से उठे सवाल जैसे थे वैसे ही रखे रह जायेंगे और एकबार फिर देश की जनता किसी बडे सच से अनजान रह कर नये फेरे में अपनी नज़र गाढ लेगी। यह देश का दुर्भाग्य है। और इसे कांग्रेस अच्छी तरह से समझती है कि भारतीय लोगों को भूलने की आदत है, उन्हें आसानी से बेवकूफ बनाया जा सकता है। वैसे भी तुलसीदास की चौपाई चरितार्थ होती है कि " समरथ को नहिं दोष गुंसाई...।"
सपना, काँच या ज़िन्दगी ...
22 घंटे पहले
6 टिप्पणियां:
अमिताभ जी बड़ा अच्छा विषय चुना आपने. आज अभी एक कार्टून देखा वो इस सन्दर्भ में शायद बहुत सटीक है की प्रधानमन्त्री इन सब बातोँ से हटने लेगें तो हर महीने एक नया प्रधानमंत्री चाहिए होगा.
कोई भी दूध का धुला नहीं है अब तो यही लगने लगा है जो तानाशाही के खिलाफ पश्चिमी देशों में शुरू हुआ है वही यहाँ भी होगा.
इतने सार्थक विषय पर ब्लॉग को सूना पड़ ही जाना था ! सच को स्वीकार नहीं कर पाते लोग .... और आपने वाह करने के लिए कुछ बेकार की कोई रचना नहीं लिखी ! तो कौन आता यहाँ ! मन दुखी हो जाता है जब लोगों के इस व्यवहार को देखता हूँ ! एक सार्थक विषय को सामने रखने के लिए बहुत बधाई !
अमिताभ जी ... देश की राजनीति का जो हाल है वो किसी से छुपा नहीं है ... कांग्रेस को एक चेहरा चाहिए था जो उन्हें मनमोहन के रूप में मिला ... उसका फायदा उठाया उन्होंने अब अगर मनमोहन जाते हैं तो किसी और ऐसे उजले चेहरे वाले को वो बैठा देंगे ... पर होना वाही है जो सोनिया जी चाहती हैं ...
बहुत दिनों बाद आपको ब्लाग पर सक्रीय पाकर अच्छा लगा |वैसे नियमित पाठको में मेरा भी नाम आना चाहिए |
अमिताभ जी किसी ठीकठाक आदमी का राजनीति में आना और किस्मत से शीर्ष पद पर पहुंच जाता तब उसे राजनीति की बारीकियों का पता नहीं चलता और वह ठीकठाक आदमी फिर क्या माफी ही मांगता है। और शातिर राजनीतिज्ञ खिलाडी तर्क देता है। पर सवाल यह है कि मनमोहन जी को अपनी गलती का अहसास तब हुआ जब सुप्रीम कोर्ट ने अपना निर्णय सुनाया। खैर शानदार लेख....
महाभारत के ध्रत् राष्ट्र एवं हिन्दुस्तान के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एक ही व्यक्ति हैं ।
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