बियाबान हो या बंजर
धूप हो या पानी
उबड-खाबड रास्तों से
सीधी सपाट गलियों तक
चुपचाप लेटी पडी
रहती हैं ये मीटर गेज़ की पटरियां।
ठीक मेरी और उसकी तरह
जो साथ-साथ तो चलती हैं
किंतु कभी आपस में
मिलती नहीं।
और यह दुनिया..
आवारा सीटी बजाते हुए
रेंगती गुजर जाती है, रोज़ ही।
निर्मोही कहीं की।
14 टिप्पणियां:
और यह दुनिया..
आवारा सीटी बजाते हुए
रेंगती गुजर जाती है, रोज़ ही।
निर्मोही कहीं की।
Nirmohi bhee aur saath,saath,kayee baar nirdayi bhee!
आपके शब्द निर्मोही कहीं की से एक गाना याद हो आया ईला अरुण जी का कि निगोड़ी कैसी.... है जो बात ना सुने मेरी.....॥
वैसे आपकी रचना बहुत पसंद आई पर "निर्मोही कहीं की" ये शब्द कुछ ज्यादा दिल को छू गए। रेल की पटरियों और जिंदगी जो जोडा है सच कमाल कर दिया। सर जी तुसी छा गए जी।
और यह दुनिया..
आवारा सीटी बजाते हुए
रेंगती गुजर जाती है, रोज़ ही।
बहुत सुन्दर अमिताभ जी . क्या खूब तुलना है . कभी ना मिल सकने की बेबसी लिए दो प्रेमी और उनको रौंदती हुयी गुजरने वाली दुनिया रूपी ट्रेन . कमाल का चित्र खीचा है आपने
baap re ,
kita kuchh kaha diya is nirmohi ne.
badhai..
mere blog par bhi padhare dost.
और यह दुनिया..
आवारा सीटी बजाते हुए
रेंगती गुजर जाती है, रोज़ ही।
निर्मोही कहीं की....
haan Amitabh ji nirmohi to hai ..tabhi to har tarah ki swariyon ko dhoti rahti hai...
आवारा सीटी बजाते हुए
रेंगती गुजर जाती है, रोज़ ही।
निर्मोही कहीं की।
जीवन का पूरा फलसफा सिर्फ चंद पंक्तियों में
आदरणीय अमिताभ श्रीवास्तव जी
सस्नेहाभिवादन !
और यह दुनिया…
………निर्मोही कहीं की !
अजी क्यों दिल पर लेते हैं ?
ये दुनिया ये दुनिया शैतानों की बस्ती है , यहां ज़िंदगी सस्ती है …
दुनिया को गोली मारो …
दुनिया की ऐसी की तैसी …
दुनिया का मज़ा ले लो , दुनिया तुम्हारी है …
दुनिया ओ दुनिया , तेरा जवाब नहीं …
… :) बहुत विचारणीय कविता है , इंसानी बेबसी को अच्छी तरह उभारा है आपने … आभार !
तीन दिन पहले प्रणय दिवस भी तो था मंगलकामना का अवसर क्यों चूकें ?
♥ प्रणय दिवस की मंगलकामनाएं !♥
♥ प्रेम बिना निस्सार है यह सारा संसार !♥
बसंत ॠतु की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
wah...shandar rachna amitabh ji........
आपको जहां छोड़ा था..वहीँ से ढूंढना पडेगा...सीटी बजाते हुए गुजर जाना संभव नहीं ...
फिर आते हैं हुजूर..
:ठीक मेरी और उसकी तरह
जो साथ-साथ तो चलती हैं
किंतु कभी आपस में
मिलती नहीं।
और यह दुनिया..
आवारा सीटी बजाते हुए
रेंगती गुजर जाती है, रोज़ ही।
"
वाह सर... क्या बात है.. सचमच छा गए!!!
बहुत खूब अमिताभ जी ... इंसान खुद भी तो निर्मिहो होता है ... बस ढोंग करता है मोह का ...
किसी के चले जाने के बाद भूल जाता है आसानी से ... जीवन के रास्ते मोड़ लेता है .... लाजवाब रचना है आपकी ... आशा है सब कुशल मंगल से बीत रहा होगा ..
आवारा सीटी बजाते हुए
रेंगती गुजर जाती है, रोज़ ही।
निर्मोही कहीं की।
ati sundar..Amitabha ji
बहुत अच्छा विषय चुना है भाई कविता के लिए । मैं भी जब पटरियों को देखता हूँ तो यही सोचता हूँ ।
और यह दुनिया शैतानों की बस्ती है ..आपकी रचना पसंद आई
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