उधेडबुन आदमी के दिमाग को अस्त व्यस्त रखती है। फिर यदि हम यह सोचें कि इसमें किसी रचनात्मक कार्य को अंजाम दे दिया जाये तो यह कठिन है। पिछले महीनेभर से ब्लॉग के लिये यदि कुछ न लिख पाया तो वजह यही थी, हालांकि यह वजह अभी भी बेवजह बनी हुई है। कौन्धता रहता है सवाल कि आखिर हम अपने लिये वक़्त क्यों नहीं निकाल पाते? दिमाग भी पट्ठा जवाब ढूंढ कर वार कर ही दिया करता है, कि वक़्त तो हम अपने लिये ही जीते हैं, किंतु उसमे परिस्थितियों का तडका लग जाया करता है। और हम तडके के स्वाद में पेट खराब करते रहते हैं यानी अपने लिये वक़्त नहीं निकाल पाते और उलझकर रह जाते हैं ताउम्र। खैर..। मैने अनुभव किया है कि जब मन-मस्तिष्क, सबकुछ जीविकोपार्जन की मशक्कत में सिर तक डूबा रहता है तो अन्यत्र कुछ भी दिखाई नहीं देता और यह एक ऐसी स्थिति होती है जब किसीको समझ पाना भी कठिन होता है। हां, ढेर सारे दर्शन होते हैं, आध्यात्मिक विचार होते हैं, सीखें होती हैं मगर व्यक्ति की पीडा व्यक्ति ही जान सकता है कि गहरे पानी में क्या वजह है कि वह थक गया है या किनारे आने के लिये कितनी और कैसी तकनीक की आवश्यकता है? हां किनारे लगे लोग इसका बखूबी वर्णन कर सकते हैं, और नज़रअंदाज भी। बहरहाल, जीवन के ऐसे ही खाकों से होते हुए सफर करना ठीक वैसा लगता है जैसे उबड-खाबड, गड्ढों से पटी पडी सडक पर किसी सरकारी, खटारा बस का चलना और देर से ही सही किंतु दुरुस्त मंजिल तक पहुंच भी जाना। चलिये..छोडिये मेरी फिलॉसाफी को.., आप पढिये मेरे भाईसाहब की दो और गज़लें-
1,
" दिल भारी है सूखे लब
गिन-गिन तारे बीती शब।
तडपे-रोए इश्क़ में हम
यही है चाके-दिले-सबब।
हुस्न रहा कुछ दूरी पर
हैं साए सब बेमतलब।
देख के दुनिया पागल है
तुम में है कुछ बात गज़ब।
खूब सहेजा और समेटा
टूटे बिखरे ख्वाब हैं अब।
खैर, जो इज्जत बची रहे
दफ्न हो चुके यहां अदब।
तुम भी 'अश्क' अज़ब नादां हो
सुधरे हैं कमजर्फ भी कब?"
2,
कौन यहां रहने वाले हैं
इक दिन सब चलने वाले हैं।
तेज़ बहुत है दिल की धडकन
फिर वो कुछ कहने वाले हैं।
चुप्पी लब पर, रक्तिम चेहरा
ज़ाहिर है लडने वाले हैं।
कहकर कर लो दिल तुम हल्का
हमें है खूं, सहने वाले हैं।
दरिया और समंदर क्या है
आंसू में बहने वाले हैं।
तुलसी,मीर,कबीर,सूर को
कौन आज पढने वाले हैं।
उनने हंसकर मुझको देखा
लोग 'अश्क़' जलने वाले हैं।
सपना, काँच या ज़िन्दगी ...
9 घंटे पहले
10 टिप्पणियां:
अमिताभ जी एक दम सही कहा है आपने जीवन एक संघर्ष का ही नाम है. हर स्तर पर. खैर जीने के लिए ये भी जरूरी है.
दोनों गज़लें बहुत ही सुंदर है
तेज़ बहुत है दिल की धडकन
फिर वो कुछ कहने वाले हैं।
चुप्पी लब पर, रक्तिम चेहरा
ज़ाहिर है लडने वाले हैं।
बहुत बढ़िया. धन्यबाद.
चलो ब्लॉग की चुप्पी तो टूटी |भाई साहब की दोनों गजल बहुत खुबसूरत है
कौन यहां रहने वाले हैं
इक दिन सब चलने वाले हैं।
बिलकुल सच्ची बात कह दी है सरलता से |
इसीलिए तो थोडा अपने लिए भी समय निकाल ही ले |
जीवन की इस उधेड बुन में कुछ अपने लिए भी निकल जाए तो वह दवा का काम करता है। और पागलो को यह खुराक मिलती रहनी चाहिए ईश्वर की कृपा से। नही हम पागल आदमी हो जाऐगे:)
खैर भाई साहब की दोनों गजल पंसद आई क्योंकि दोनों में जीवन के रंग घुलेहुए है।और जिस रचना में जीव्न के रंग़ घुले होते है वो रचना वाकिए पंसद आती है। कुछ शेर वाकई अपने लिखे से लगे।
देख के दुनिया पागल है
तुम में है कुछ बात गज़ब।
(पागलो को पागल वाली बाते पंसदआतीहै)
कौन यहां रहने वाले हैं
इक दिन सब चलने वाले हैं।
तेज़ बहुत है दिल की धडकन
फिर वो कुछ कहने वाले हैं।
तुलसी,मीर,कबीर,सूर को
कौन आज पढने वाले हैं।
वाह वाह वाह । भाई साहब को बोले कि फिर से लिखने लगे।
जीवन की इस उधेड बुन में कुछ अपने लिए भी समय निकल जाए तो वह दवा का काम करता है।
सच है अमिताभ जी ... जीवन में कई पल ऐसे आते हैं जब उबड़ खाबड़ रास्तों पर इंसान थक जाता है ... पर फिर स्वत ही ऊर्जा का निर्माण करना पढता है ... उठाना पढता है ...
दोनों ही ग़ज़लें लजवाब हैं ... खिलते हुवे शेर हैं सब ...
आपको और समस्त परिवार को नव वर्ष मंगल मय हो ...
mujhe ghazals hamesha hi bhati hai...aapne bhi kamaal kiya hai :)
मेरे मन की बात भी कह दी आपने कि हम अपने लिये वक़्त क्यों नहीं निकाल पाते? परिस्थितियों का तडका लग जाया करता है। और हम तडके के स्वाद में पेट खराब करते रहते हैं यानी अपने लिये वक़्त नहीं निकाल पाते और उलझकर रह जाते हैं ताउम्र।
देख के दुनिया पागल है
तुम में है कुछ बात गज़ब।
खूब सहेजा और समेटा
टूटे बिखरे ख्वाब हैं अब।
और
तुलसी,मीर,कबीर,सूर को
कौन आज पढने वाले हैं।
उनने हंसकर मुझको देखा
लोग 'अश्क़' जलने वाले हैं।
..बहुत बढ़िया पंक्तियाँ...
नव वर्ष और मकर सक्रांति की हार्दिक शुभकामनाएं
बहुत सही लिखा है आप ने कि ...जब मन-मस्तिष्क, सबकुछ जीविकोपार्जन की मशक्कत में सिर तक डूबा रहता है तो अन्यत्र कुछ भी दिखाई नहीं देता और यह एक ऐसी स्थिति होती है जब किसीको समझ पाना भी कठिन होता है.
--मुझे भी अक्सर यही लगता है कि 'ब्लॉग्गिंग २०-३० साल बाद ही करनी चाहिए..प्रोपर ब्लॉग्गिंग हो नहीं पाती..शायद अभी समय नहीं आया...:))
..................
'चुप्पी लब पर, रक्तिम चेहरा
ज़ाहिर है लडने वाले हैं।'
-यह शेर तो बहुत खूब कहा है!
कौन यहां रहने वाले हैं
इक दिन सब चलने वाले हैं।
-सटीक कहा!
भाई साहब की दोनों ग़ज़लें बहुत ही अच्छी हैं.
.............
आभार.
अच्छी गज़लें हैं अमिताभ ।
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