शनिवार, 10 अप्रैल 2010

निवाला

सुबह होने के साथ ही
अट्टहास करता
छा जाता है
राक्षसी दिन।

जैसे भूखा हो बरसों से।

अपने नुकीले दांतों के बीच
रख कर चबाता है
और एक एक करके
खाने लगता है हम सबको।

अपने लवणयुक्त चिपचिपे
लार के साथ उतारता है
अन्धेरी गर्म कोठरी से पेट में।

फिर आंतों के
अजगरी कसाव से
दबाता है,
इतना कि सारी हड्डियां
चूर चूर हो जाती है।

खून-पसीना सबकुछ एक हो जाते हैं।

विटामिन, प्रोटिन, जैसे तमाम
शक्तिवर्धक पदार्थ को शोषित कर
अपनी धमनियों में भेजता है।

और रात होते ही
डकार मार सो जाता है।


बचे हुए लोग
फिर जुट जाते हैं
दिन की तैयारी में,
उसका निवाला बनने के लिये।

19 टिप्‍पणियां:

बाल भवन जबलपुर ने कहा…

वाह क्या बात कही है अमिताभ जी
बचे हुए लोग
फिर जुट जाते हैं
दिन की तैयारी में,
उसका निवाला बनने के....?

Udan Tashtari ने कहा…

बचे हुए लोग
फिर जुट जाते हैं
दिन की तैयारी में,
उसका निवाला बनने के लिये

-गज़ब!! बहुत गहरी बात कही..

कडुवासच ने कहा…

अट्टहास करता
छा जाता है
राक्षसी दिन।
जैसे भूखा हो बरसों से।

....अदभुत कल्पनाशीलता.... बेहतरीन रचना!!!

M VERMA ने कहा…

बचे हुए लोग
फिर जुट जाते हैं
दिन की तैयारी में,
उसका निवाला बनने के लिये।
प्रणाम अद्भुत परिकल्पना और भाव सृजन के लिये

सुशील छौक्कर ने कहा…

अभी सुबह ही जब बेटी को स्कूल छोड़ने गया था तो रोड दोडते स्कूटर, साईकिल, कार,थ्री व्हीलर..... सब दोड रहे है और मैं उनकी दौड गौर से देखने लगा और फिर सोचने लगा इस पर लिखा जा सकता है। हमने सोचा ही था और इधर आए तो देखा तो यहाँ लिखा हुआ मिला, कमाल है जी। खैर रचना बेहतरीन है। आप कैसे सोच लेते है ये सब। आप एक बार अपने रचने के लिखने का क्रम बताईए जी। कहाँ से कहाँ ले गए रचना को। और अपनी बात कह दी धार धार प्रवाह में। गजब का है जी आपका लिखना। वैसे आज की सुबह अच्छी है। और हाँ रसगुल्ला आज शनिवार भी है बहाना नही चलेगा।

विवेक रस्तोगी ने कहा…

हम तो इस राक्षस के चुंगल से बाहर ही निकल नहीं पा रहे हैं।

दिगम्बर नासवा ने कहा…

बचे हुए लोग
फिर जुट जाते हैं
दिन की तैयारी में,
उसका निवाला बनने के लिये।

सच है इंसान वक़्त के हाथो नीवाला ही है .. रोज़ पिसता है वक़्त की बेरहम चक्की में ... फिर दूसरे दिन दुबारा तैयार हो जाता है पिस्ने के लिए ... आम आदमी के यथार्त का सजीव चित्रण ...........

rashmi ravija ने कहा…

बहुत ही गहरी अभिव्यक्ति

KAVITA ने कहा…

बचे हुए लोग
फिर जुट जाते हैं
दिन की तैयारी में,
उसका निवाला बनने के लिये।
Shoshit-peedit logon ka darpan aur shoshakon ka bhaywaha chehara pradarshit karti aapki rachna garhe bhavon se bhari hai... padhkar aur sochne par badhya karti hai..
Bahut shubhkamnayen

"अर्श" ने कहा…

बज्म-ऐ-सुखनवर और भी देखे हमने
ऐसी शराब और फिर मिलती नहीं कहीं...

ये शे'र बस आपके लिए अभी अभी बना है और आपको दिए जाता हूँ ... मैं तो आया था इधर आपकी पिछली पोस्ट पढ़ने के लिए ... पिछली बार समयाभाव के कारन लौट गया था .... पोस्ट लम्बी होने के कारण ....इस बारी आपको पढ़ के ठिठका सा रह गया .... क्या
समिश्रण है ... कमाल की सोच है ... बेहद उम्दा ... बधाई स्वीकारें ...


अर्श

डॉ टी एस दराल ने कहा…

आखिरी पंक्तियाँ तो गज़ब की हैं।
गहरी बात ।

रवि कुमार, रावतभाटा ने कहा…

बेहतर कविता...

रचना दीक्षित ने कहा…

आज के जीवन का कटु सत्य हर इन्सान इनसे रोज ही दो चार होता है कुछ तो इसी में खतम हो जाते हैं और जो बच जाते हैं वो फिर अगले दिन की इसी तय्यारी में लग जाते हैं

अपूर्व ने कहा…

कहते हैं कि मसरूफ़ियत की शराब मे ऐसी तासीर होती है कि दिन के भूखे दाँतों के बीच फ़ँसे हो कर भी उस दर्द का अहसास नही होता..महानगर मे किसी सोमवार की सुबह हम ऐसे निवालों को कंधों से टकराते, फ़िसलते भागते देखते हैं..और सुबह लोकल ट्रेन के पेट मे समाती भावहीन जोम्बीज्‌ की तरह भीड़ भूखे दिन का एक और निवाला लगती है..जिसका हिस्सा हम भी होते हैं...

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' ने कहा…

सच कहा है आपने...हर दिन...हर पल यही चलता है.
कोई शक्ति है जो हम सब की रक्षा भी करती है.

शरद कोकास ने कहा…

बहुत बढ़िया बिम्बों का इस्तेमाल किया है ।

kshama ने कहा…

Kya kamal likha hai...! Sahi hai..aisehi to din hame nigal jata hai..ek ke baad ek..

Alpana Verma ने कहा…

दिन की भाग दौड़ में खुद को हर पल पिसते देख कर एक कवि मन इससे बेहतर इस स्थिती को अभिव्यक्ति नहीं कर सकता है.
बहुत ही शसक्त अभिव्यक्ति.


[ये कविता मुझ से कैसे छूटी??
:(..]

Alpana Verma ने कहा…

वर्तनी त्रुटि सुधार --शसक्त को' सशक्त' पढ़ें .