गुरुवार, 8 अप्रैल 2010

ज्ञान का अधिकार ज्यादा जरूरी

मैं एक कार्यक्रम में था। "शिक्षा के अधिकार पर चिंतन"। कुल पांच-छह वक्ता। अच्छे वक्ता थे। मुझे भी बोलने का अवसर मिला। हालांकि मैं बोलने या वक्ता के रूप में कहीं ज्यादा आता-जाता नहीं, क्योंकि सिर्फ बहस पर, विशेषकर औपचारिक बहस पर मैं विश्वास नहीं करता क्योंकि वहां विषय लुप्त हो जाते हैं और 'व्यक्ति विशेष' विषय पैदा हो जाते हैं। सो मुझे अधिक बेहतर लगते है ऐसे आयोजन जहां गम्भीरता हो। कोई चिंतन हो। जहां सार्थक मंथन होता हो। किंतु ऐसा अब ज्यादा कहां होता है? है न। पर कभी-कभी हो भी जाया करता है। जैसा हाल ही में हुआ। खैर, बहुत कुछ सुना, विषय था भी सार्थक और वो दर्शन की ओर मुड गया था सो ज्यादा आनन्द आने लगा था। अपनी बात रखते वक़्त कितना कुछ कहा, बोला शब्दशः याद नहीं किंतु सोचा इस विषय पर लिखना भी चाहिये, विषय अच्छा था सो आपके सम्मुख रखने के मोह से विलग नहीं हो सका। और लिखने के इस लोभ का संवरण नहीं कर सका, क्योंकि मैं समझता हूं, जब कोई सर्वहारा विषय होता है तो उसे व्यक्त कर देना चाहिये। छोटा सा आयोजन था, विशुद्ध साहित्यिक आयोजन अब अदने ही होते हैं। उसकी चर्चा भी अपने कुनबे से बाहर नहीं निकल पाती। ठीक भी है, शक्ति संचय शायद यही है।


"मेरा यह दृढ मानना है कि श्रद्धा है तो ज्ञान है। ज्ञान अर्जन के लिये श्रद्धा का होना अनिवार्य है। किसी भी प्रकार का ज्ञान आपकी श्रद्धा के प्रतिशत पर निर्भर करता है। मैं समझता हूं दुनिया में जितने प्रकार के दुख है, अशांति है, तनाव है वे पहले श्रद्धा के अभाव में तो बाद में ज्ञान के अभाव में ज्यादा हैं। निस्सन्देह इसका उपचार भारतीय आध्यात्म, उसके दर्शन में है। आपको बता दूं कि भारतीय आध्यात्म ईश्वर आस्था का विषय नहीं है। यह ईश्वर द्वारा, उसके प्रतिनिधित्व में या किसी प्रकार की घोषणा में नहीं है। यह सिर्फ श्रद्धा और ज्ञान की प्रीति है। यह खुद के भीतर के जगत का ही अध्ययन है, न कि बाहर के किसी प्रायोजन का प्रतिफल। आप जानते हैं कि भीतर का जगत रहस्यों से परिपूर्ण, बेहद ही दिलचस्प है। यहां ढेर सारी इच्छायें हैं, कामनायें हैं, राग है, द्वेष है , दुख हैं, सुख हैं किंतु चीर आनंद नहीं है। इसी आनन्द की बाहरी तलाश हमारे तमाम तनावों, अशांति की जनक है। जहां श्रद्धा का प्रतिशत कम है वहां ज्ञान का अभाव ज्यादा है। अब एक बडी ही दिलचस्प बात है कि भारतीय दर्शन का उद्गम, उसका जन्म दुख का कारण खोजने और उसे समाप्त करने की जीवन राह खोजते हुए हुआ है। यह भी आप जानते हैं कि कामनायें कर्म कराती हैं। चित्त में कर्मफल की इच्छायें जाग्रत करातीं हैं। और ये जो आप कर्म करते हैं उसके फलों में प्रकृति की ढेरों शक्तियां हिस्सा लेती हैं। कभी सफलता हाथ लगती है तो कभी नहीं लगती। किंतु दोनों कर्म बन्धन में आपको फंसाती हैं। भारतीय दर्शन में यही कर्म बन्धन, बार बार के जन्म का प्रतिफल है। आप गम्भीर होकर सोचिये कि कर्म बन्धन से मुक्ति ही स्थाई आनंद है। गीता में पूर्ण ज्ञान ही मुक्ति का उपाय दर्शाया गया है। ऋगवेद में यह ज्ञान प्रकृति की एक बडी शक्ति के रूप में है।
अब सरकार भले ही शिक्षा के अधिकार का कानून ले आये किंतु इस प्रकार की शिक्षा ज्ञान नहीं बांट सकती। ज्ञान के लिये तो आपको अपने भीतर की पाठशाला में जाना होगा। क्योंकि शिक्षा और ज्ञान में ज़मीन-आसमान का फर्क़ है। शिक्षा सरोवर हो सकती है किंतु ज्ञान सागर है। यह सच है कि ज्ञान के लिये शिक्षा के रास्ते ही जाया जा सकता है किंतु पूर्ण रूप से श्रद्धा के संग। यह बडा ही अज़ीब दौर है जब हम भारतीय दर्शन से विरक्त शिक्षा को ही सम्पूर्ण मान बैठे हैं और अपने बच्चों तक में अल्फा, बीटा, गामा आदि सम्प्रेषित कर रहे हैं। यह सच है कि यह अतिआवश्यक है। किंतु यह भी सच है कि हम अपनी तरह, अपने बच्चों में भी अशांति, तनाव संक्रमित कर रहे हैं। इतनी आपाधापी, इतनी प्रतियोगिता और शिक्षा भी तो ऐसी जो श्रद्धा के बगैर है, ज्ञान से रिक्त है, सिर्फ जीविकोपार्जन के निमित्त। तो स्वभाविक रूप से कई प्रकार के तनाव घिर आने हैं। खैर..भारतीय शिक्षा में मान लीजिये यदि गीता का भी सब्जेक्ट इंक्लुड हो जाये तो? क्या बुराई है, यह किसी मज़हब से जुडा है, मुझे तो ऐसा नहीं लगता। कुरान मदरसों में पढाई जाती है, बाइबल की विद्या भी कई स्कूलों में दी जाती है, गीता की क्यों नहीं? मेरा मानना है कि हमारी शिक्षा में गीता, कुरान, बाइबल, गुरुग्रंथ साहेब सबके वैकेल्पिक विषय होने चाहिये। दरअसल यह इसलिये कि मैं यहां ज्ञान की चर्चा कर रहा हूं जो इन्हीं विषयों में समाहित है। शोध जरूर होते हैं। शोध महज़ आपकी डिग्री तक सीमित न हो तो आध्यात्म के अन्दर झांका जा सकता है। अब आप यह मान सकते हैं कि दुनिया इन सब चीजों से बहुत आगे निकल चुकी है। ये विषय हमारी उन्नति, या आर्थिक प्रगति नहीं कर सकते, न ही देश-विदेश में आगे बढने में सफलता दे सकते हैं। यह है बगैर श्रद्धा। श्रद्धा किसी भी वस्तु में होगी, वो निश्चित रूप से आपको सफल करेगी ही। बस, सफलता के इस मापदंड में देखना यह है कि आप बाहरी सफलता प्राप्त कर रहे हैं या आंतरिक। बडा ही उबाऊ विषय लेकर चर्चा कर रहा हूं मैं। है न। किंतु मैं जानता हूं जिसकी श्रद्धा पढने की है उसे कुछ न कुछ अवश्य मिलेगा, जिस प्रकार मेरी श्रद्धा लिखने में है और इसके लिये गहन अध्ययन हुआ। आप सोच सकते हैं इससे मुझे मिला क्या? सुख। इस सुख का औचित्य क्या? मैं किसी भी प्रकार के तनाव से मुक्त हूं। कितना? और कितने लम्बे समय तक ऐसा हो सकता है? जब तक मैं इस पूरी मनस्थिति में आकंठ डूबा रहूंगा। मैं आपको फिर कह देता हूं कि ये किसी प्रकार की ईशवरीय आस्था नहीं है। और न ही श्रद्धा अन्धविश्वास है। श्रद्धा पर डॉ.राधाकृष्णन ने अपनी राय देते हुए लिखा था कि- " श्रद्धा अन्धविश्वास नहीं है। यह आत्मा का ज्ञान प्राप्त करने की महत्वकांक्षा है।" ( डॉ. राधाकृष्णन, श्रीमद्भाग्वत गीता, पृ.158)। चित्त की विशेष दशा श्रद्धा है। ज्ञान के कई क्षेत्र हैं। विज्ञान की भी कई शाखायें हैं। कोई डॉक्टर, कोई अर्थशास्त्री, कोई मनोविज्ञान, कोई दर्शन, कोई भूगर्भ शास्त्र कोई इतिहास आदि में ज्ञान अर्जित कर शांति चाहता है। किंतु गीता में ज्ञान का तात्पर्य खुद के अंतिम तत्व बोध से है। इसके लिये बडी महत्वकांक्षा चाहिये, और श्रद्धा इसी महत्वकांक्षा की ऊर्जा है।
ये जो हमारा भारत है, क्यों महान है? इसलिये कि यहां अनुभव अध्ययन, जिज्ञासा और निष्कर्षो की एक सुदीर्घ परम्परा है। भौतिक जगत के जितने भी अध्ययन हैं वे सारे हस्तांतरित हैं। वैज्ञानिक विज्ञान के सूत्र खोजते हैं, हम सब भी लगभग इसी तकनीक का इस्तमाल करते हैं। किंतु आत्म ज्ञान अहस्तांतरित नही। कपिल, कणाद, गौतम, बादरायण, पतंजलि या शंकराचार्य आदि की अनुभूतियां वैयक्तिक है, वे प्रेरित कर सकती हैं मगर उनका हस्तांतरण नहीं किया जा सकता। ये श्रद्धा के विषय हैं। उन्हें मिला आत्मज्ञान श्रद्धा की शक्ति पाकर हम सबके लिये महत्वकंक्षा बन सकता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि मूर्ख, अश्रद्धालु और संशयी नष्ट हो जाते हैं। ऐसे लोगों के लिये न तो ये जगत है, न वो परलोक। उन्हें सुख तो मिल ही नहीं सकता। ( वही श्लोक 40)। हममें एक बुरी आदत भी है कि हम सन्देह करने लगते हैं। सन्देह दरअसल देह के साथ है। वृहदारण्यक उपनिषद (4.4.13) में कहा गया है कि- " शरीर में प्रविष्ट यह आत्म तत्व जिसे प्राप्त हो गया है- यस्यानुवित्तः प्रतिबुद्ध आतमास्मिन सन्देहेय गहने प्रविष्टः।" वह सब कर्ता है- "स हि सर्वस्य कर्ता तस्य लोकः स उ लोक एव?" "उसे सबका कर्ता व लोक का स्वामी बताया गया किंतु तब वह और लोक दो होते हैं इसलिये अंतिम में जोडा गया हे - वही लोक भी है। प्रकृति और परमतत्व दो नहीं है। श्रीकृष्ण सन्देह और संशयों को खत्म करने के लिये ज्ञान मार्ग दिखाते हैं। क्योंकि ज्ञान से ही तमाम सन्देह दूर हो सकते हैं। आप मान सकते हैं कि हम भारतीय हैं इसलिये भारतीय दर्शन की महत्ता सिद्ध करते हैं। ऐसा बिल्कुल भी नहीं है क्योंकि यूरोपीय दर्शन जिसका आधार यूनानी दर्शन है वो भी भारतीय दर्शन से प्रभावित ही है। प्लेटिनस (204-70ई.) आखिरी यूनानी दार्शनिक रहे थे। उनका चिंतन भारतीय दर्शन से युक्त रहा। उनके विवेचन में जिन तीन तत्वों को दिखाया गया उसे ट्राइनिटी यानी त्रितत्व कहा गया। पहला 'वह एक' , दूसरा तर्क बुद्धि, तीसरा विश्वात्मा है। हालांकि इसाइयत ने इन्हें नहीं अपनाया। किंतु त्रित्व की कल्पना नई नहीं थी। महामृत्युंजय मंत्र के नाम से विख्यात ऋगवेद के सातवें मंडल के एक मंत्र में 'त्र्यंबक यजामहे' हजारों साल पहले से ही मौजूद है। प्लेटिनस ने जागतिक कर्मों से परे रहकर मुक्ति मार्ग को अपनाने पर जोर दिया जो गीता कहती रही है। इसके पहले प्लेटो (428-427ई.पू) ने गीता की तरह 'फीडो' मे कहा है कि "देहधारी अज्ञानी होकर बन्धन में होते हैं। किंतु ज्ञानी मुक्त हो जाते हैं।" प्लेटो 'रिपब्लिक' में लिखते हैं कि-" शुभ प्रत्यय पर ध्यान करने से आत्मा की गति ऊर्ध्वगामी हो जाती है और आनंदद्वीप पहुंच जाती है।" कुलमिलाकर मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि भारतीय दर्शन ज्ञान का महासागर है, इसमें डुबकी लगायें, दावे के साथ कहता हूं बाहर आने की इच्छा ही नहीं होगी, खैर ..ज्ञान सर्वोच्च है। इसे श्रद्धा से ग्रहित करें। कभी-कभी हमें लगता है कि कोई विषय रुचिकर नहीं है किंतु सम्भव है वो ही जीवन मार्ग के लिये असल रोशनी हो। यानी, शिक्षा का अधिकार सरकार दे सकती है, किंतु जो अधिकार हमारे भीतर है उससे हम दूर क्यों रहें। श्रद्धा रखे, ज्ञान प्रेषित करें। जन जन तक पहुंचाने का कर्म करें। बस कर्म करें। "

8 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

श्रद्धा रखे, ज्ञान प्रेषित करें-इसी की जरुरत है.

कडुवासच ने कहा…

...बेहद प्रभावशाली अभिव्यक्ति!!!

सुशील छौक्कर ने कहा…

पहले मैं भी समझता था कि पढने लिखने से आदमी इंसान बनता है पर धीरे धीरे समझ आने लगा कि नही ऐसा नही होता। पढने लिखने से तो आदमी रोटी कमा पाता है या फिर ........पर इंसान नही बन पाता। ऐसा क्यों नही हो पाता है अभी तक नही समझ पाया। खैर एक विचारों के फूलों से बनी एक एक सार्थक अच्छी पोस्ट है।
और निराशा इस बात से है कि टिप्पणी की संख्या मात्रा दो है। खैर कर्म महत्वपूर्ण है।

Anita kumar ने कहा…

अमिताभ जी आप ने बहुत ही सार्थक पोस्ट लिखी है। ज्ञान चक्षु खोलती पोस्ट्। इस पोस्ट का पहला भाग हम क्लास में पढ़ाते हैं आत्मज्ञान है तो तनाव पास नहीं फ़टके्गा। लेकिन हमारे वेद क्या कहते हैं ये विस्तार से आप की पोस्ट से ही पता चला। मुझे लगता है कि इतनी गहरी बात अगर आप थोड़ा आसान कर के और उसे थोड़ा और रोचक बना कर कहें तो ज्यादा लोगों को पसंद आयेगी। आखिर वो ज्ञान किस काम का जो बांटा न जाए, और बांट्ने का उददेश्य तभी सफ़ल होगा जब ज्यादा से ज्यादा लोग उसे ग्रहण कर पायेगें और करना चाहेगें।
ऐसी ही अनेकों पोस्ट आप की कलम से हमें मिलें यही प्रार्थना है भगवान से

Alpana Verma ने कहा…

शीर्षक बहुत ही प्रभावी है..post पूरी पढ़ कर ही कुछ लिखूंगी.दोबारा आती हूँ.

रचना दीक्षित ने कहा…

अच्छी लगी ये पोस्ट थोड़े में बहुत कुछ समेटे .
बहुत गहरी सोच गहरा अध्ययन और जीवन की सार्थकता के सूत्र

Alpana Verma ने कहा…

'विशुद्ध साहित्यिक आयोजन अब अदने ही होते हैं'
सही कहा ,उन्हें प्रायोजक जो नहीं मिल पाते.
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ज्ञान के लिये तो आपको अपने भीतर की पाठशाला में जाना होगा। क्योंकि शिक्षा और ज्ञान में ज़मीन-आसमान का फर्क़ है।
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श्रीकृष्ण कहते हैं कि मूर्ख, अश्रद्धालु और संशयी नष्ट हो जाते हैं। ऐसे लोगों के लिये न तो ये जगत है, न वो परलोक। उन्हें सुख तो मिल ही नहीं सकता। ( वही श्लोक 40)।
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भारतीय दर्शन ज्ञान के महत्व पर रौशनी डालती ये बातें मुझे बेहद बेहद प्रभावशाली लगीं.
बहुत ही अच्छा और अनुकरणीय लेख लगा.
मेरे विचार में ज्ञान का प्रसार और खुद में भी विस्तार अपने अपने स्तर पर सभी को करना चाहिये.
-इन बिन्दुओं को हम तक पहुँचाने हेतु आभार.

pankaj pandit ने कहा…

VERY NICE......Words are not coming in a rhythmic manner"Aap ki mehanat ko salam".