इसमे कोई दो राय नही कि 'कहानी' साहित्य की खूबसूरत विधा है. किंतु 'कहानी' ही साहित्य है, यह हज़म हो जाने जैसा तो नही लगता. पिछले दिनो जब हम मित्र मंड्ली मे यह चर्चा चल रही थी और साहित्य के तथाकथित 'कार' राजेन्द्र यादव के सन्दर्भ मे बात करके अपना समय जाया कर रहे थे तो इस बीच मेरा गौतम राजरिशी जी के ब्लोग पर जाना हुआ, वहा भी मेने यही पाया कि राजेन्द्र जी मौज़ूद है/ लिहाज़ा मेरा मासूम मन साहित्य मे गद्य के प्रति विचारो की अग्नि मे तपने लगा/ 'जितना तपता सोना उतना निखरता है' वाला कथन सच ही है/
गौतमजी के ब्लोग पर राजेन्द्र यादव के प्रति स्वस्थ आलोचना मन को भायी, स्वस्थ आलोचना साहित्य को तराशने का काम करती है/ हालांकि राजेन्द्रजी जैसे जीव का पाचन तंत्र कितना बलिष्ठ है इसका पता नही किंतु साहित्य के 'आका' कहलाने का उनका मोह 'हंस' मे दीखता है/ उनका साहित्य और साहित्य के लिये उठा पट्क वाला जो आभा मन्डल है वो उन लोगो की आंखे भले ही चौन्धीयाता रहे जिन्हे उनसे स्वार्थ हो, मेरी आंखो मे वे और उनका सहित्य कभी आकर्षण का पात्र नही बन सका। अपना अपना द्रष्टिकोण ठहरा. सौभाग्यवश मेरी उनसे कभी मुलाकात नही हुई, दुर्भाग्यावश मेने उनकी कुछ रचनाओ को पढा है। खैर जहा तक बात कहानी को ही साहित्य मानने की है तो मै इसे ठीक नही मानता। साहित्य की उपज राग से है, राग पध्य रूप मे ज्यादा स्पष्ट होता है। लिहाज़ा साहित्य का जन्म ही मै पध्य से हुआ मानता हू/ आप यदि गम्भीरता से विचार करे या साहित्य की मूल गहराई मे उतरे तो पहले काव्य के रूपो को जानने व समझने के लिये थोडा पाश्चात्य व भारतीय परम्परा को खंगाल लेना आवश्यक है। काव्य के भेदो मे यूरोपीय समीक्षको ने व्यक्ति और संसार को प्रथक करके काव्य के दो भेद किये है, एक विषयीगत दूसरा विषयागत. विषयीगत यानी सब्जेक्टिव, जिसमे कवि को प्रधानता मिलती है और दूसरा विषयागत यानी आब्जेक्टिव जिसमे कवि के अतिरिक्त शेष स्रष्टि को मुख्यता दी जाती है. यानी पहला प्रकार काव्य 'लिरिक' हुआ। यूनानी बाज़ा 'लाइर' से सम्बन्ध होने के कारण इसका शाब्दिक अर्थ तो वैणिक होता है किंतु इसे प्रायः प्रगति या भाव- प्रधान काव्य कहते है। इसमे गीत तत्व की प्रधानता रह्ती है. दूसरे प्रकार के काव्य को अनुक्रत या प्रक्थनात्मक कहा गया है। महाकाव्य और खंड काव्य इसके उपविभाग है. किंतु पाश्चात्य देशो मे प्रायः महाकाव्य ही इस प्रकार के काव्य का प्रतिनिधित्व करता है. वहा खंड काव्य जैसा कोई विशेष उपविभाग नही है. ये विभाग पध्य के ही है। अब यदि गध्य की बात करे तो इसके विभाजन मे गध्य काव्य की महिमा है. जहा भाव-प्रधान काव्य मिलेगा. और उपन्यास महाकाव्य का तथा कहानी खंड्काव्य का प्रतिनिधित्व करेगा/ गद्य मे निबन्ध, जीवनी आदि अनेक ऐसे रूप है जिनको इस विभाजन मे अच्छी तरह बान्ध नही सकते. पर गध्य काव्य के शेत्र से बाहर नही है। गद्य का उलट ही पद्य है. जिसको आप अंगरेज़ी मे (Verse) कहते है।
आप जानते है कि भारतीय परम्परा मे नाटक को प्रधानता मिली है। जो काव्य अभिनीत होकर देखा जाये तो द्रष्य काव्य है और जो कानो से सुना जाये तो श्रव्य काव्य कहलाता है। यध्यपि श्रव्य काव्य पढे भी जाते है। रामायण का उदाहरण लिया जा सकता है जिसे पढने व गाने के लिये उपयुक्त माना जाता है।
उपन्यास महाकाव्य का स्थानापन्न होकर और कहानी खन्डकाव्य के रूप मे गद्य के प्रबन्ध काव्य कहे जाते है। गद्य काव्य तो मुक्तक है ही, पत्र भी मुक्तक की कोटि मे आयेंगे. उनकी निबन्ध और जीवनी के बीच की सी स्थिति है। समस्त संग्रह की द्रष्टि से एक एक निबन्ध मुक्तक कहा जा सकता है। किंतु निबन्ध के भीतर एक बन्ध रहता है. ( हालांकि उनमे निजीपन व स्वछन्दता भी होती है) वैयक्तिक तत्व की द्रष्टि से गद्य के विभागो को इस प्रकार श्रेणी बद्ध कर सकते है, उपन्यास, कहानी ( काव्य के इस रूप मे उपन्यास की अपेक्षा काव्य तत्व और निजी द्रष्टिकोण अधिक रहता है.) जीवनी यह इतिहास और उपन्यास के बीच की चीज है। इसका नायक वास्तविक होने के कारण अधिक व्यक्तिपूर्ण होता है) निबन्ध (इसमे विषय की अपेक्षा भावना का आधिक्य रहता है) गद्य काव्य तो ये सभी रूप है। किंतु गद्य काव्य के नाम की विधा विशेष रूप से गद्य काव्य है।
कहने का तात्पर्य यह है कि जो यह समझते है कि साहित्य कहानी या गद्य को ही कहा जाता है वे मेरी समझ मे ना समझ है। गद्य का जन्म ही कविता से हुआ है। मुझे अच्छा यह लगा कि गौतमजी न सिर्फ गज़ल या संस्मरण के महारथी है बल्कि वे वैचारिक स्तर पर साहित्य की परख करने से भी नही हिचकिचाते है। सम्भव है इसीलिये मुझे उनका ब्लोग रुचिकर लगता है।
बहुत दिन हुये मेने कोई रचना उकेरी नही.तो कोशिश करता हूं-
" मासूम हूं
इसलिये
छला जाता हूं,
हर बार बस
यू ही
अकेला
रह जाता हूँ ।
निजत्व जो है
नीरा पवित्र है,
किंतु, ठीक है
गंगा की तरह
मैला कर
दिया जाता हूं,
तो कर दिया जाता हूं।
अब वो माने
या ना माने
समर्पण करे
या ना करे
मुझे प्राथमिकता दे
या ना दे
मै तो उन्हे सिर्फ
प्रेम किये जाता हूं।
अपना लेखा-जोखा
पायथोगोरस का
सिद्धांत भी नही,
जितने जोड
बनाता हूं
उतने ही
घटाव किये
जाता हूं।
क्योकि
मासूम हूं।
हर बार
छलने के
लिये ही हूं। "
बिमारी ... प्रेम की ...
1 हफ़्ते पहले
32 टिप्पणियां:
बढ़िया विमर्श।
सही है कि गद्य अर्थात उपन्यास, कहानी, निबंध का संसार ही साहित्य नहीं है।
पर इससे सहमत नहीं हूं कविता की कोख से गद्य जन्मा है। लोकाचार, लोकरंजन में कविता पहले जन्मी। कथा-गायन की परम्परा पद्यात्मक ही थी क्योंकि उसका संस्कार वही था। पर मनुष्य का संवाद प्राचीनकाल से ही सपाट गद्य में रहा है न कि काव्य में। साहित्य का संस्कार देने के लिए कथा को छंद में बांधा गया। सो प्रारम्भ से ही साहित्य में कथा का स्वरूप पद्यात्मक मिलता है। पर गौर करें कि साहित्य से इतर भी समाज में जो किस्से चलते रहे होंगे वे ठोस और सपाट शैली के गद्य में ही होते थे। उन्हें किसी ने लिपिबद्ध नहीं किया क्योंकि वैचित्र्य पैदा करने के लिए उनका कविता में गूंथा जाना ज़रूरी था। जब काव्य की तुकांतधारा ज़रूरी नहीं रह गई। परदेसियों के रोज़नामचे, ख़ासतौर पर अरब और फारस के आख्यान सामने आए, जो ठोस गद्य ही थे तब हिन्दी में भी यह दौर शुरु हुआ। सोलहवी-सत्रहवी सदी में ब्रज में गद्य के प्रमाण मिलते हैं। संक्षेप में यही कि गद्य को साहित्य का संस्कार पद्य की कोख से मिला, मगर गद्य अपने मूल रूप में शुद्ध गद्य ही है, पद्य नहीं। उसे पैदा होने के लिए काव्य की कोख में जाने की ज़रूरत नहीं है।
इस विषय पर फिलहाल इतना ही।
साभार...
अमितजी,
आप जैसे बुध्दिजीवियो के बीच मुझ जैसो को कुछ कहना उचित तो नही लगता किंतु जो विचार आपके इस पोस्ट से उपजे है उसे कहना चाहूंगा,
अजित जी ने जो कहा उसमे भी मै स्पष्ट नही हो सका..मुझे लगता है साहित्य का जन्म राग से ही हुआ, बच्चा पैदा होता है और रोता है...रोना एक्प्रकार से राग मे लिप्त रहता है../ कहने का मतलब यही है कि पद्य गद्य की मा है. फिर जैसा आप कहते है अपना-अपना द्रश्तिकोण ठहरा.
आपकी कविताओ मे अपना अलग आनन्द रहता है. साधुवाद.
मुझे लेख और टिप्पणियों से काफ़ी जानकारी मिली शुक्रिया
गद्य हो या पद्य दोनो ही साहित्य को अमर करते हैं । फिर पहले मुर्गी हुई या अंडा जैसे सवाल क्यूँ ।
यह बहस काफी समय से सुन और पढ रहा हूँ। वैसे हमें इसके बारे में ज्यादा ज्ञान नहीं इसलिए ज्यादा कुछ नही कहेंगे। पर आपने काफी अच्छे तरीके से बताया है साहित्य के बारें में। और आपकी रचना ने हमारा दिल जीत लिया है। बहुत ही बेहतरीन लिखी गई है।
मासूम हूं
इसलिये
छला जाता हूं,
हर बार बस
यू ही
अकेला
रह जाता हूँ ।
मासूम लोगो के दिल की बात कह दी आपने।
अपना लेखा-जोखा
पायथोगोरस का
सिद्धांत भी नही,
जितने जोड
बनाता हूं
उतने ही
घटाव किये
जाता हूं।
वाह क्या प्रयोग किया है पायथोगोरस का। कुछ टिप्स हमें भी दीजिए सर एक तुकबंदी को एक बेहतरीन कविता बनाने में।
aapki kavita bahut pasand aai amit ji........
अमिताभ जी............ साहित्य का इतना ज्ञान नहीं है.........पर आपने अपना मत स्पष्ट तरीके से रक्खा है और मेरा मानना है जो भी किसी एक विचार या एक विशेष पद्धति में साहित्य को बाँधना चाहता वो भूल कर रहा है........ साहित्य केवल गद्य या केवल पध्य नहीं हो सकता............ प्राकृति अपने आप हर चीज का स्रजन करती है और साहित्य भी प्राकृति से ही उत्पन हवा है.......... हर किसी ने उसे अपनी अपनी समझ के अनुसार ग्रहण किया है ............
आपकी रचना भी लाजवाब है ..........
" मासूम हूं
इसलिये
छला जाता हूं,
हर बार बस
यू ही
अकेला
रह जाता हूँ ।
सच कहा है मासूम मन हमेशा ही चला जाता है
अमिताभ जी,
बहुत ही भोली और मासूम सी कविता जो स्वार्थी दौर में भी अपने मन में बड़ी जगह लिये है और खुली हुई है और अपने छले जाने को नियति मानते हुये उद्दत है :-
निजत्व जो है
नीरा पवित्र है,
किंतु, ठीक है
गंगा की तरह
मैला कर
दिया जाता हूं,
तो कर दिया जाता हूं।
अपना लेखा-जोखा
पायथोगोरस का
सिद्धांत भी नही,
जितने जोड
बनाता हूं
उतने ही
घटाव किये
जाता हूं।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
मासूम हूं
इसलिये
छला जाता हूं,
हर बार बस
यू ही
अकेला
रह जाता हूँ ।
... प्रसंशनीय अभिव्यक्ति !!!!
amitabhji
"असल साहित्य क्या है ?"
is sheershak ko padhkar aur andar ke kuch ansh padhkar mujhe achry ramchandra shukl ki aalochnatmk sheeli ka smrn ho aaya hai .sahity ki
barikiyo se avgt krane ke liye bhut bhut dhnywad.
निजत्व जो है
नीरा पवित्र है,
किंतु, ठीक है
गंगा की तरह
मैला कर
दिया जाता हूं,
तो कर दिया जाता हूं।
nijatv pavitr hai to pavitr hai hi ?aur yh pavitrta hi shrdha ka aadhar hai .
sahity aur uski mukhay vidha kavita bhut achi lgi .
Bahut sundar vivechan aur vishleshan.
_______________________________
अपने प्रिय "समोसा" के 1000 साल पूरे होने पर मेरी पोस्ट का भी आनंद "शब्द सृजन की ओर " पर उठायें.
"क्योकि
मासूम हूं।
हर बार
छलने के
लिये ही हूं। "
सत्य वचन.
इतना सारगर्भित लेख लिखने के बाद भी अपनी गंगा सी पवित्र मासूमियत का अहसास करा ही दिया, यही तो खास बात है पद्य में जो चन्द अक्षरों में ही वह सब कुछ कह जाता जो बाकी कहने में बहुत इंतजार कराते हैं.
चन्द्र मोहन गुप्त
अमिताभ जी...बहुत दिनों बाद आपकी ख़ूबसूरत पोस्ट पड़ने को मिला उसके लिए धन्यवाद ! आपने इतना सुंदर लिखा है कि कहने के लिए अल्फाज़ कम पर गए! आप जैसे महान लेखक को मैं सिर्फ़ इतना कहूँगी कि आपकी लेखनी को सलाम! आपने बहुत ही सरल, ख़ूबसूरत और उम्दा कविता लिखा है जो मुझे बेहद पसंद आया!
आप ने लिखा--'कहने का तात्पर्य यह है कि जो यह समझते है कि साहित्य कहानी या गद्य को ही कहा जाता है वे मेरी समझ मे ना समझ है।'
यही मेरी भी राय है..
मैं ने भी गौतम जी की पोस्ट पर राजेन्द्र जी की बातोंपर असहमति ज़ाहिर की थी.
आप ने बहुत ही सुलझे हुए ढंग से इसे प्रस्तुत कर दिया है.
-आप की कविता भी गहन भाव लिए हुए है---
मासूम ही हर बार छला जाता है..
और दुनिया की इस भीड़ में अकेला रह जाता है..
अच्छी कविता.....भावपूर्ण.....साहित्य ज्ञान में नासमझ हूँ लेकिन इतने सारे महारथी अपने विचार व्यक्त कर गए है....सो पढ़कर अच्छा लगा.....
साभार
हमसफ़र यादों का.......
आपको पिता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ...
---
चाँद, बादल और शाम | गुलाबी कोंपलें
"मासूम हूं
इसलिये
छला जाता हूं,
हर बार बस
यू ही
अकेला
रह जाता हूँ ।"
अब आपने सब कह दिया इन कुछ पंक्तयों में... हम क्या कहें? :))
बहुत सारा अर्थ समाया हुआ है इन चंद शब्दों में... हम अब क्या कहें?? :))
और यही मैं कहना चाहता हूँ.... की कविता तो वो 'साहित्य' की विधा है जो थोड़े में बहुत समेटने की विद्या रखती है.
कम शब्दों में ज्यादा कहना... वोही तो कविता है.
और मेरे विचारों से...
साहित्य तो वोह है,
जो शब्दों के माध्यम से,
सुन्दर चित्र उकेरे,
कल्पना को रूप दे,
सच को बखान करे,
सन्देश को आवाज दे,
समाज को दर्पण दे,
मन को उड़ान दे,
पाठक को रस-पान दे....
बस वोही साहित्य है... जिस भी रूप में हो... किस्सा, कहानी, गीत, कविता, नाटक.... जो भी..
हाँ कुछ लोग हैं, जो लिखे हुए पन्नों के अनुसार (किलो से या संख्या से) 'साहित्य' को भाव देते हैं..
पर होंगे वो कोई और...
आपको और आपके साहित्य को मेरे जैसे प्यासे पाठक का नमन!!!!
~जयंत
अमिताभजी सहित्य के बारे मे मेरे जैसी अल्पग्य क्या कह सकती है मगर मुझे आपकी कविता बहुत अच्छी लगीशब्दों के सरित प्रवाह मे बह गयीअपना लेखा-जोखा
पायथोगोरस का
सिद्धांत भी नही,
जितने जोड
बनाता हूं
उतने ही
घटाव किये
जाता हूं।
जीवन इसी जोड घटा मे ही तो बीत जाता है सुन्दर अभिव्च्यक्ति आभार्
अमिताभजी सहित्य के बारे मे मेरे जैसी अल्पग्य क्या कह सकती है मगर मुझे आपकी कविता बहुत अच्छी लगीशब्दों के सरित प्रवाह मे बह गयीअपना लेखा-जोखा
पायथोगोरस का
सिद्धांत भी नही,
जितने जोड
बनाता हूं
उतने ही
घटाव किये
जाता हूं।
जीवन इसी जोड घटा मे ही तो बीत जाता है सुन्दर अभिव्च्यक्ति आभार्
प्रिय अमित ,खुश रहो | बहुत दिन बाद आपके ब्लॉग पर आ पाया | मन मत्स्य ,किसी बिरले को खो दे और सड़क और मैं पढ़ा /सैर के वास्ते सड़कों पे निकल आते थे अब तो आकाश से पथराव का दर है दुष्यंत जी को अपनी डायरी के पन्नों में ऐसी जगह फिट किया है कि लेख में जान डालदी |आप गद्ध्य के प्रति विचारों में तपे ,साहित्यकार को तपना ही चाहिए |पाचन तंत्र के बलिष्ठ होने की बात सही है आप उनकी आलोचना भेज दीजिये ,तुंरत छाप जायेगी ,यह महानता भी है |खैर |
दुर्भाग्य बश उनकी रचना पढने वाली (कहीं स्त्री विमर्श तो नहीं )व्यंग्य अच्छा लगा |कहानी साहित्य की एक विधा है | मूर्ती में ही भगवान् हैं कहने की वजाय मूर्ती में भी भगवन हैं |लहर समुद्र भी है और उसका एक हिस्सा भी ||महाकाव्य और खंडकाव्य स्वम साहित्य भी हैं और साहित्य का हिस्सा भी वर्तमान में मैं भी छला जाकर अकेला हो गया हूँ
गद्य हो या पद्य दोनो ही साहित्य को अमर करते हैं. बढ़िया विमर्श.शुक्रिया
"हिन्दीकुंज"
बहुत अच्छा लेख....बहुत बहुत बधाई....
रचना अच्छी लगी...
एक नई शुरुआत की है-समकालीन ग़ज़ल पत्रिका और बनारस के कवि/शायर के रूप में...जरूर देखें..आप के विचारों का इन्तज़ार रहेगा....
आपका ब्लॉग नित नई पोस्ट/ रचनाओं से सुवासित हो रहा है ..बधाई !!
__________________________________
आयें मेरे "शब्द सृजन की ओर" भी और कुछ कहें भी....
अब वो माने
या ना माने
समर्पण करे
या ना करे
मुझे प्राथमिकता दे
या ना दे
मै तो उन्हे सिर्फ
प्रेम किये जाता हूं।
आपकी यह कविता मेरे दिल को छू गयी ,कितनी सही बाते है ,हर शब्द में जीवन का अनुभव झलकता हुआ ,अच्छाई वाकई छली जाती है
मैं औरों यानि विद्वानों की बात तो नहीं करता क्यों की मैं साधारण पढ़ा-लिखा एक आम - आदमी हूँ उसी की तरह अपनी बात कहूँगा 'मेरी निगाह में साहित्य वह है जो दिल में उतर जाये कुछ देर कुछ और न सोचा जासके ,'' वह चाहे दुखांत-सुखांत-व्यंग्यात्मक ,रोमांचक ,रोचक मनोरंजक चाहे जैसी भी कहानी हो ,उपन्यास ,कविता हो यहाँ तक की लघु कथा भी मेरी दृष्टि में साहित्य हो सकता है | और रही बात आप के तथाकथित, 'कार ' की तो ....अच्छा छोडिये जाने दीजिये , इतनी देर में किसी नवागंतुक का ब्लोग पढ़कर उसका उत्साहवर्धन या किसी पुराने ब्लोगर को टिप्पिया लूँगा | शेष फिर कभी अगली मुलाकात [पोस्ट ]पर |
Masoom hee chhale jaate hain...phirbhee har maasoomiyat ko mera naman hai.."chhale' jaate hain, chhalte to nahee...!
http://kavitasbyshama.blogspot.com
http://aajtakyahantak-thelightbyalonelypath.blogspot.com
http://lalitlekh.blogspot.com
पुनश्च ::रोचक ढंग से लिखा इतिहास भी और पुराण आदि भी साहित्य की ही श्रेणी में आएंगे | जिसे एतराज हो [ शायद 'कार ' को हो ] वह सोचे कि जब '' तोल्स्तोय की ' वार ऐंड पीस ' " को विश्व साहित्य की श्रेठ रचना माना जा सकता है तो " महाभारत " को क्यों नही |
मासूम हूं
इसलिये
छला जाता हूं,
हर बार बस
यू ही
अकेला
रह जाता हूँ ।
padha aur accha laga..
BADHIYA LEKH AUR UTAN HI ACCHA LAGA AJIT JI KA COMMENT !!
KAI DINO BAAD AAYA APKE BLOG MAIN KSHAMA PRARTI HAIN !!
AB NIYAMAT BANE RAHEINGE....
...AUR HAAN AB BHI AAPKI "PITAJI" WALI POEM DIL MAIN BASI HAI !
:)
मुझे अच्छा यह लगा कि गौतमजी न सिर्फ गज़ल या संस्मरण के महारथी है बल्कि वे वैचारिक स्तर पर साहित्य की परख करने से भी नही हिचकिचाते है। सम्भव है इसीलिये मुझे उनका ब्लोग रुचिकर लगता है।
same problem....
हमने कभी पढा नहीं शायद यादव जी को..
एक बार सुना अवश्य था ..
और अब ना पढ़ना है ना सुनना...
अमित जी पहली बार आपके ब्लॉग पर आया और आगे पीछे सब पढ़ आनंदित होता रहा .
इस लेख में आपने सही समझ और चिंतन से बड़ी सफाई से सच्चाई बताई है .
टिप्पणियों में भी यही बात आयी है . सब तो कहा ही जा चुका है .फिर भी बदतमीज कहलाये जाने के खतरे के बावजूद बिना कहे न रह पाऊँगा .
ये जनाब और इनके जैसे कई और ' चुके लोग ' सिर्फ आत्म मुग्धता और दंभ के शिकार हैं . मूर्खता की हदों तक .ये तो कबीर को भी ' बीत चुका ' मनवाने की जुर्रत तक करते पाए जाते हैं .इनका ख्याल है की साहित्य इनके दरवाजे बंधी कोई भैंस या छिनाल है , और उस से निकाल कर परोसा जाये वही ग्राह्य. साहित्य इन्हीं से शुरू होता है इन्हीं पे ख़त्म .नयी पीढी को इनकी अनदेखी करनी चाहिए . हाँ एक वक़्त अच्छा लिख चुके हैं वह पढ़ा जाना चाहिए , बस .
आपकी कविताओं में भावना का प्रवाह भी है और जीवन की दार्शनिकता भी . रोचक तो हैं ही , बहुत कुछ कहती भी हैं . जीवन को प्रतिबिंबित करती .
( अब इसे कोई साहित्य न माने तो फिर ? मुम्बैया भाषा में यही कहा जा सकता है की ' गया तेल लगाने ' :):):) .)
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