कभी-कभी
आदमी जो कहता है
उसके अर्थ को अपने आस-पास के
परिवेश के कारण
बदल कर गाह्य कर लिए जाते है
और इस तरह शब्दों के
ईमान की हत्या हो जाती है।
शंकाओ के भेडिए
सच की लाश को
नोच-नोच कर खाने लगते है,
आदमी की आदमियत पर
और उसके स्नेह पर
जटिल मानसिकता आक्रमण
करने लगती है,
रिश्ते-नाते टूट कर बिखरने लगते है,
होता कुछ नही है
बस आदमी आदमी
नही रहता
उसका पवित्र नाता
किसी ग़लत फहमी के जाल में
उलझ कर तड़पता है।
बार-बार यदि वो अपनी
सफाई भी पेश करे
तो भी मन के अन्दर पेठी
विरूध्द भावना उसके रास्ते की
रुकावट बनती है,
और यह मान्य कर लिया जाता है
की जिस पर भरोसा किया
उसने, उसकी भावनाओ ने
सिर्फ़ लूटा या लूटना चाहा।
कैसी मानवता है ये ?
कैसी विचारशक्ति है ?
शायद इसी वजह से इस समाज में
प्रेम नही टिकता , नाते टूटते है,
रिश्ते बिखरते है,
और सात्विक हृदय की
पूछ नही होती,
उसे समझा नही जाता
और बहुत जल्द उसके ख़िलाफ़
एक घिनौनी मानसिकता
तैयार कर ली जाती है।
जबकि होना यह चाहिए की
किसी के प्रति कोई धारणा
बनाने से पूर्व
उसके सच को खंगालना
परम जरूरी है।
हम सबको एक द्रष्टिकोण से
नही देख सकते।
और यदि देखते है तो
हो सकता है
किसी बिरले को
खो दे।
गुरुवार, 28 मई 2009
बुधवार, 20 मई 2009
मन मत्स्य

बहुत चिकना होता है विचार पथ
जिस पर मन बार- बार फिसल जाता है,
फिसलकर भाव सरिता में बहने लग जाता है।
भावो की लहरों संग खूब तो उछलता है
डुबकिया लगाता है और किनारे आ-आ कर
साधु हृदय को चिढ़ाता है।
कभी बिल्कुल निरापद
तो कभी शैतान होकर
उसका चैन उडाता है।
खिलखिलाते नृत्यरत
ऐसे मन को क्या साधना?
किंतु
शब्द अपना जाल बुनते है
उसे पकड़ने के लिए स्याही के कांटे का उपयोग करते है।
और चारे की तरह अक्षर को कांटो में फंसा
सरिता में डालते है।
घंटो इन्तजार के पश्चात
अंततः झांसे में आ ही जाता है मन
अक्षर शब्दों के साथ पंक्तिबध्द
खड़े होकर मन को चीरने लग जाते है
फाड़ते है,
उसकी आजाद जिंदगी को
कविता के नाम पे
बलि चढ़ा दिया जाता है।
भुना जाता है और
काव्य जगत के बाज़ार में
परोस कर फ़िर
रसास्वादन होता है।
बेचारा मन मत्स्य ।
बुधवार, 13 मई 2009
मंगलवार, 5 मई 2009
मेरा जीवन सार तुम्ही हो...
"दुःख को छिटक मै आया
तुमसे मिलने ओ एकांत,
बता कहां है मागॅ जहां से
मिलता माँ का वो प्रांत।
याद मुझे है सबकुछ किंतु
राह विस्मृत सी हो चुकी
विदा हो रहा था जब मै
थी अश्रुरत पलके झुकी।
ये समय का फेर था कैसा
कालचक्र से छला गया,
अपने हृदय धर तुमको
दूर कैसे मै चला गया।
संग दल-बल, बना महल
किंतु न कभी चैन मिला,
भीड़ में भी रहा अकेला
एक अदद न मीत मिला।
कहा तुम्हे था कि रोना मत
यदि ध्यान कभी मेरा आए,
पर मै यहाँ बिन तुम्हारे
रहा नित दृग नीर बहाए।
अपने हृदय पर रख पत्थर
था केसे तूने विदा किया,
मेरा मन धरने को तूने
विष बिछोह का पी लिया।
वर्षो संघर्ष में लिप्त रहा
पर नही मिला ठोर ठिकाना,
मिले जो जग के वैभव सारे,
झूठे है सब मेने जाना।
मेरा सुख साम्राज्य तुम्ही
मेरा राज वैभव तुम्ही हो,
गोद तुम्हारी, प्यार तुम्हारा,
मेरा जीवन सार तुम्ही हो। "
तुमसे मिलने ओ एकांत,
बता कहां है मागॅ जहां से
मिलता माँ का वो प्रांत।
याद मुझे है सबकुछ किंतु
राह विस्मृत सी हो चुकी
विदा हो रहा था जब मै
थी अश्रुरत पलके झुकी।
ये समय का फेर था कैसा
कालचक्र से छला गया,
अपने हृदय धर तुमको
दूर कैसे मै चला गया।
संग दल-बल, बना महल
किंतु न कभी चैन मिला,
भीड़ में भी रहा अकेला
एक अदद न मीत मिला।
कहा तुम्हे था कि रोना मत
यदि ध्यान कभी मेरा आए,
पर मै यहाँ बिन तुम्हारे
रहा नित दृग नीर बहाए।
अपने हृदय पर रख पत्थर
था केसे तूने विदा किया,
मेरा मन धरने को तूने
विष बिछोह का पी लिया।
वर्षो संघर्ष में लिप्त रहा
पर नही मिला ठोर ठिकाना,
मिले जो जग के वैभव सारे,
झूठे है सब मेने जाना।
मेरा सुख साम्राज्य तुम्ही
मेरा राज वैभव तुम्ही हो,
गोद तुम्हारी, प्यार तुम्हारा,
मेरा जीवन सार तुम्ही हो। "
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