शनिवार, 15 मई 2010

तीन कवितायें

1, प्रतीक्षा के
अग्नि कुंड में
समय की समिधायें
डाल-डाल
उम्र को हवन कर दिया
और
इस तप का
प्रतिफल ये मिला कि
अब आस्तिक न रहा।


2, विरह की लपटों से
झुलसी
लगभग राख हुई उम्र
इस नंगी-रूखी
हवा के बदन से
लिपट
जीवन के चारों ओर
भंवर बना
नाचने लगी है
मानो यह
अंतिम नृत्य साधना है
किसी बलि के लिये।


3, स्मृतियों का पत्थर
आंखों के स्थिर
अश्रु ताल में
जब भी गिरता है
तो
हलचल मच जाती है,
फिर उम्र कितनी भी हो
गाल गीले हो ही जाते हैं।