सालों बाद जब अपने पुराने दस्तावेजों की पोटली खोली तो मानों वक़्त ने करवट बदल कर मुझे अपनी आगोश में ले लिया। कुछ ऐसे खतों में खो गया जिनमें जिन्दगी खेला करती थी। उन्हीं खतों में मुझे मिला मेरे बडे भाईसाहब का एक पत्र और उनकी लिखी गज़लों के तीन पन्ने। यह तो मैं जानता था कि भाईसाहब तब खूब लिखा करते थे। मुशायरे वगैरह में जाते थे, छपते थे..पिताजी से इस संदर्भ में चर्चायें किया करते थे। मैं छोटा था और गज़ल वगैरह से दूर था इसलिये उनकी कई सारी गज़लें सिर के उपर से जाया करती थी। आज भी बहुत सी गज़लें हैं जो मेरी समझ में नहीं आती किंतु हां, थोडा-बहुत समझने लगा हूं। जब थोडा बहुत समझने लायक हुआ तब तक उन्होने न केवल लिखना छोड दिया बल्कि इस विधा से दूर अपनी जिन्दगी की जरूरतों, जिम्मेदारियों में खो गये। अब वे नहीं लिखते। यह जो उनके तीन पन्ने मेरे हाथ लगे..ये भी वर्ष 1990 के आस पास के हैं। मेरे पास उनकी गज़लों के लिहाज़ से यही तीन पन्ने और मेरी समझ में आ जाये वैसी छ्ह सरल गज़ल है। मुझे खुशी हो रही है कि मैं उनकी रचना जो वे 'अश्क़' के नाम से लिखा करते थे यहां आप सब की नज़र कर रहा हूं।
1,
" इतनी हवाएं सर्द थीं कि दरख्त हम ठिठुर गए
झौंके बहे गमों के यूं कि सख्त हम सिहर गए।
समझ के इब्तिदाए-खुशी तल्खियों को पी गए
अस्ले-सुकूं तभी मिला, बाकी थे बेखबर गए।
मुट्ठी में बहुत बांधा किए बेरुख लकीर हम
दाता ने बेवफाई की, बेबस थे हम बिखर गए।
मुरादो-हसरतों का कहां इन्सां को वक़्त है
कल जो खुले थे चश्म आज बंद हो अखर गए।
दिलकश थी जिन्दगी कभी जिनके सहारे 'अश्क़'
बचपन-ओ-जवानी के वो यार सब किधर गए। "
2,
" झूठी दुनिया झूठ चलन में
होता है व्यापार सदन में।
रस्ता भूले साफ सरल में
मंजिल पाई गहन-सघन में।
उडता टुकडा अखबारी है
नेता का चारित्र्य पवन में।
बात समझना तब है मुमकिन
उतर सको वक्ता के मन में।
पढे-सुने को समझा जाना
गज़ल हो गई अर्थ वहन में।
बच्चों को बचपन जीने दें
यह भी कठिन है इस जीवन में।
कहने को है 'अश्क़' अकेले
महफिल रहती है चिंतन में। "
( कुछ अन्य अगली पोस्ट में)
15 टिप्पणियां:
उत्तम। भाई साहब से आग्रह करें कि लिखना फिर शुरू करें। छोटी बहर की दूसरी ग़ज़ल का तो हर शेर अश अश की मांग करता है।
झूठी दुनिया झूठ चलन में
होता है व्यापार सदन में।...
प्रभावशाली....
मुट्ठी में बहुत बांधा किए बेरुख लकीर हम
दाता ने बेवफाई की, बेबस थे हम बिखर गए।
मुरादो-हसरतों का कहां इन्सां को वक़्त है
कल जो खुले थे चश्म आज बंद हो अखर गए।
और
बच्चों को बचपन जीने दें
यह भी कठिन है इस जीवन में।
कहने को है 'अश्क़' अकेले
महफिल रहती है चिंतन में।
बहुत सार्थक चिंतनपूर्ण प्रस्तुति के बाद लाजवाब गजले पढवाने के लिए आभार
इसे कहते खोली पोटली निकला खजाना। जिसे पाकर हर पाठ्क करोड़पति महसूस करने लगता है। खैर शानदार गजलें वाह वाह लेती हुई और आनंद देती हुई। क्या ये भाई साहब जी वही है जिनसे हम मिले थे। या फिर उज्जेन वाले। आज की सुबह पढ्कर दिल खुश हो गया।
मुट्ठी में बहुत बांधा किए बेरुख लकीर हम
दाता ने बेवफाई की, बेबस थे हम बिखर गए।
दिलकश थी जिन्दगी कभी जिनके सहारे 'अश्क़'
बचपन-ओ-जवानी के वो यार सब किधर गए। "
बच्चों को बचपन जीने दें
यह भी कठिन है इस जीवन में।
.....वैसे तो गजल का हर शेर बेहतरीन है। पर इन तीन के तो क्या कहने। आपने तो ह्मारीप्यास जगा दी इसलिए जरा अपनी को और खोलिए और हमारी प्यास को बुझाईए।
ये तो खजाने की पोटली निकली. बेमिसाल ग़ज़लें लिखीं हैं भाई साहब ने. गजल का हर शेर बेहतरीन है।
वाह अमिताभ जी ... एक से बढ़ के एक हैं दोनों ग़ज़लें ... अपने आप को बाखूबी बयान किया है शेरों में भाई साहब ने ....
दिलकश थी जिन्दगी कभी जिनके सहारे 'अश्क़'
बचपन-ओ-जवानी के वो यार सब किधर गए। " ...
वक़्त की गहरी सूझ से इस तरह के काबिल शेर निकल कर आते हैं ... जीवन को जीवन की सच्छाई को साक्षात झेला है इस शेर में ...
झूठी दुनिया झूठ चलन में
होता है व्यापार सदन में।
राजनीति को कितना बारीकी से लिखा है ... आज सदन में २ ग आदर्श या जो भी कुछ चल रहा है बस व्योपार ही तो है ....
बच्चों को बचपन जीने दें
यह भी कठिन है इस जीवन में ...
कितनी पते की बात है .... मारामारी की दुनिया में .... भागम भाग की दुनिया में बचपन छोड़ सब कुछ सस्ता हो गया है .. पाने की ललक लगी है ....
उम्दा गजल |
" इतनी हवाएं सर्द थीं कि दरख्त हम ठिठुर गए
झौंके बहे गमों के यूं कि सख्त हम सिहर गए।
बहुत खूब |ऐसे ही पुतलियो से खजाने निकलते रहे और हम अमीर होते रहे |
आभार
कुछ ऐसे खतों में खो गया जिनमें जिन्दगी खेला करती थी। baat dil ko choo gayi...aapke bhai sahab bahut accha likhte hai sir..par जब थोडा बहुत समझने लायक हुआ तब तक उन्होने न केवल लिखना छोड दिया बल्कि इस विधा से दूर अपनी जिन्दगी की जरूरतों, जिम्मेदारियों में खो गये। अब वे नहीं लिखते
ye sunkar soch mein hoon..ki kyon hum khud ke liye fursat nahi nikal paate..
अतिप्रिय अमिताभ जी
सादर नमस्कार !
आदरणीय भाईसाहब की ग़ज़लें पढ़ने का अवसर देने के लिए आपके प्रति कृतज्ञता के शब्द नहीं मिल रहे …
आप जितने गुणी हैं , ज़ाहिर है आपके संपर्क में आने पर हर कोई कुछ सीख लेता है … फिर बड़े भैया आपसे कम गुणी तो हो नहीं सकते !
प्रणाम है उनकी लेखनी को भी !
यहां ग़ज़लों पर बात करने की अपेक्षा इनमें डूब कर आनन्द लेने को अधिक मन है।
यूं, कहने को पहली ग़ज़ल का मतला ही अपने ज़ादू की गिरफ़्त में ले रहा है-
इतनी हवाएं सर्द थीं, दरख्त हम ठिठुर गए
झौंके बहे ग़मों के यूं कि सख़्त हम सिहर गए
… और दूसरी ग़ज़ल अजित वडनेरकर जी के कहे को प्रमाणित कर रही है …
बात समझना तब है मुमकिन
उतर सको वक्ता के मन में।
मन को छू गया यह शे'र
अगली पोस्ट का बहुत इंतज़ार रहेगा ।
शुभकामनाओं सहित
- राजेन्द्र स्वर्णकार
dono gazalen man ko bhaa gayi..next ka intzaar hai....
उडता टुकडा अखबारी है
नेता का चारित्र्य पवन में।
बात समझना तब है मुमकिन
उतर सको वक्ता के मन में।
भाई मुझे ये दो शेर बहुत पसंद आये
अमिताभ हमे भाई साहब का पता दें हम उनसे कहेंगे कि वे फिरसे लिखना शुरू करे .. इतनी अच्छी गज़लें हैं भाई ।
अब अग्रज का नाम बतला दें
वे अग्रज हैं तो आप दिग्गज बनें
जल्दी से उनका हिन्दी ब्लॉग बनवा दें
खुद भी लिखना शुरू करें ग़ज़लें
अपने कीबोर्ड को भी आज़मा लें।
एक हिन्दी ब्लॉगर जो बिल्कुल पसंद नहीं है
१९९० में लिखीं हुई इतनी खूबसूरत ग़ज़लें !
दूसरी ग़ज़ल बहुत ही प्रभावी है.बेहद उम्दा कही है.
उडता टुकडा अखबारी है
नेता का चारित्र्य पवन में।
चंद शब्दों में कितनी बातें कह दी!वाह!
....
बच्चों को बचपन जीने दें
यह भी कठिन है इस जीवन में।
..वाह! वाह!!! वाह!!!
................
भाई साहब को फिर से लिखना शुरू करना चाहिए .
.....
लेखन में इतनी कुशलता आप दोनों भाईयों को यक़ीनन विरासत में मिली है.
कृति किसी रचनाकार का स्वयं पता दे देती हैं..इस हिसाब से भाई साहब किसी अन्य परिचय को मोहताज नही..खुबसूरत गज़लें देर से पढ़ पाया मगर मज़े मे कोई कमी नही हुई..खासकर दूसरी गज़ल का शब्द-संयोजन गजब का लगा..छोटी बहर मे कम शब्दों मे प्रभावी बात बिना किसी दुरुहता को ओढ़े हुए..सबसे अच्छा यह
पढे-सुने को समझा जाना
गज़ल हो गई अर्थ वहन में।
एक टिप्पणी भेजें