"नीम का वो पेड
आज भी है।
किंतु
वो डाल नहीं
जिस पर बंधता था
सावन का झूला।
सावन खिलखिला तो रहा है
मगर यौवन की
खिलखिलाहट पर
वक्त की रस्सी ने गांठ बान्ध दी है।
गांठ कसती जरूर है अपनी
इच्छाओं को।
इच्छायें क्या नहीं होती
हवा के साथ डोलने की?
डोलना इस मौसम में
स्वतः ही मन चाहता है।
मन उड कर फिर
उस डाल पर बैठना
चाहता है
जिस पर बन्धा करता था
सावन का झूला।
और उसका घर
ठीक सामने दिखाई देता था।
अब सवाल यह था कि
सावन के झूले का लुत्फ
लेता था या
उसके घर से उसके निकलने
की प्रतीक्षा करता था?
जो भी हो नीम के
पेड की तरह
सवाल भी खडा है...।
और सावन
झूम रहा है।"
* चित्र उसी असली नीम के पेड का है जो आज भी वहां है, पर सूना सूना सा, जैसे उसे भी हमारी याद आती हो और वो भी रोता हो।
28 टिप्पणियां:
पहले जैसा सब कुछ नहीं रहा अब
पर अब भी हम सबमें है
बहुत कुछ पहले सा
वही नीम, वही सावन
वही झूला, हिलोर वही
महसूस कर सके
वह मन, वह फुर्सत
जाने किधर हुई रुख़सत
जो भी हो नीम के
पेड की तरह
सवाल भी खडा है...।
और सावन
झूम रहा है।"
बहुत सुन्दर...सब कुछ किसी ना किसी बहाने याद आता है...
Behad sundar...meri ek kavitaki panktiyaan yaad aa gayin...'wo ped neem kaa angan me jispe jhoolaa padtaa tha....'('wo ghar bulata hai' is rachana se).
Chitr dekh to aankhen nam ho gayin...
'वो भूली दास्ताँ लो फिर याद आ गयी'
मौसम /नीम का पेड़/ वही घर और इंतज़ार ...यादें भी पीछा छोडती नहीं हैं,किसी न किसी बहाने दामन थाम ही लेती हैं.
इस बार की कविता मन के भावों को शब्द में ढाले हुए खूबसूरत अभिव्यक्ति है.
aapki in sawedansheel panktyion se "neem ka ped" yaad aa gaya..rahi masum raja ki ek anokhi kriti aur vo ek geet bhi....amitabh ji ..its so touchy!
Mujhe lagta hai aapne is rachna se sabke bachpan ke din yaad dila diye..!
khas kar mere.....
o neem ka ped aur samne uska ghar...!
wah kya baat hai....sidhe dil ko chhu gai..!
अच्छा है!!!!! नीम का पेड़ न जाने किसकी या किस किस की रह तकता होगा. यदि ये नीम किसी दिन बोला तो न जाने कितने और किस्से निकलेंगे उसकी उस जर्जर पोटली से. फ़िलहाल तो आपकी कलम से निकला ये, नीम वो झूला और उसके निकलने और न निकलने का संशय अच्छी सी यादें ताज़ा कर गया
आभार
बहुत सुन्दर...
बहुत खूब ... कुछ बीती हुई बातें ... समय के साथ बदल जाती हैं ... पर दिल में बसी यादें उगती हैं कई बार किसी न किसी सावन के बहाने ...... लाजवाब अमिताभ जी ........ वैसे सच पूछो तो तो नीम का पेड़ भी अब इतिहास बन कर रह गया है कई जगह ...इस आधुनिकता ने .. और कुछ हद तक पेड़ों के काटने ने भी सावन में झूले का एहसास ख़त्म सा कर दिया है ....
yadein agar patthar hain to aapne uska mahal khada kar diya hai!!
हमें तो पता ही नही थी कि कल से सावन शुरु हो गए है
। शाम को जब खाने बैठे तो देखा हमारी बेटी की मम्मी का आज व्रत है सावन का। तब कुछ चीजें याद आई और आज आपकी रचना पढी तो यादें नीम के पेड़ पर झूलने लगी जोकि सिर्फ दिमाग में है
,आसपास अब नीम के पेड नही रहे
। आने वाले दिनों में ये सब चीजें शहरों में बस डाईग रुम के अंदर फोटो के लिए बनी सिलीप पर बस सजावट की वस्तु रह जाऐगी। संडे को दिल्ली हाट गए थे। तो वहाँ सजावटी छोटी सी चारपाई थी। जो अब घरों में नही मिलती। हमारे घर में एक बचाकर रखी है। अरे ये मैं क्या लिखने लगा। क्या करें जी जो चीजें हमें पसंद है वो सब आधुनिकता में खत्म हो रही है। वैसे आधुनिकता भी जरुरी है पर शाय्द हम सही आधुनिकता नही अपना रहे है
। अमिताभ जी आपकी रचना ने उदास कर दिया।
ना जाने क्यूँ आजकल सावन में उदासीयों के बादल ज्यादा उमड़ रहे है। खैर रचना तो पसंद आई जब ही हम पता नही क्या क्या कह गए
। हर पक्तिं सुन्दर है। इस आपाधापी में एक ठडी सी फुहार का अहसास करा गई आपकी रचना। वैसे मैं तो उसके घर से निकलने की प्रतीक्षा करता था पर आपका पता नहीं:)
कविता की भाषा सीधे-सीधे जीवन से उठाए गए शब्दों और व्यंजक मुहावरे से निर्मित हैं।
बड़ी पुरानी यादें ताजा हुई इसे पढ़ते..
सावन खिलखिला तो रहा है
मगर यौवन की
खिलखिलाहट पर
वक्त की रस्सी ने गांठ बान्ध दी है।
गांठ कसती जरूर है अपनी
इच्छाओं को।
पहली बार आपके ब्लॉग पर आये....अच्छा लगा.
Yado ke jeewashm me halchal mahsus ki bandhu..
"Neem ka ped
muze tarane
sawan ke
sunata tha/
Neem ka ped
uske ghar ko
chhaya jo deta tha."
सावन, नीम, झूला और उसका घर..कितना खतरनाक संयोजन..इच्छाओं की गाँठें और कसमसाने लगती हैं..
करीब एक महीने के बाद मैं वापस आयी हूँ और आकर आपकी रचना पढ़कर बेहद अच्छा लगा ! ख़ूबसूरत भाव लिए आपने मनभावक रचना प्रस्तुत किया है! हर एक पंक्तियाँ दिल को छू गयी! बधाई!
बहुत खूब !!...खुबसूरत भाव !!
पहलीबार आपके ब्लॉग पे आया ,
अच्छा लगा ||
सुन्दर कविता अमिताभ जी !
वास्तव में ये सावन आते ही कुछ ना कुछ याद करता जरूर है ! और आपकी कविता पढ़ कर अब हम भी कुछ कुछ याद करने लगे हैं !
वक्त की रस्सी ने गांठ बान्ध दी है।
गांठ कसती जरूर है अपनी
इच्छाओं को।
कुछ गहरी बात कह गये आप !
माफ़ी चाहूँगा इतने दिन गायब हो जाने के लिए :)
जो भी हो नीम के
पेड की तरह
सवाल भी खडा है...।
और सावन
झूम रहा है।"
हर पक्तिं सुन्दर है
नीम के पेड़ के कई उपयोग शुरू हो गये है बाजार ने इसे हाथो हाथ लेकर कमाना शुरू कर दिया है |
बहुत ही सुन्दर रची है यादो की महक और चित्र के सूनेपन ने यादो को और गहरा कर दिया |
aji abto bo dale kahan rah gayi ustad magar rachna ne savan ki yaden taja kar di hujur
badhai........................
ज्यादा फर्क नहीं...
आपकी कहानी नीम की है..
हमारी पीपल की...रात की रानी की ..
तनहा पीपल के वो सूखे झडे ,पड़े पत्ते..
अजनबी पाँव पड़ने से..
अब कहाँ चरमराते हैं...?
हरेक शय को नर्म कर गयी है..
रात की बारिश...
इस तस्वीर में उनका घर किस तरफ है जी...?
सावन के इस महीने मे तुम्हारी यह रचना बहुत कुछ याद दिला गई
sawan aur neem ke paid ke sath bahut si yaaden taza ho gayi.
प्रश्न बिल्कुल सच्चा उठाया है
झूले की तरह मन में बसी यादों को
झुलाया है।
बस मन झूल रहा है
झूल रहा है मानस भी
सब कुछ भूल रहा है
बस याद है वो
जो सब भूल रहा है।
?
जैसे ही ये फोटो सामने आया
लगा की निकल जायेंगे प्राण
खिचने लगा कलेजा ,और बहने लगी अश्रुधारा
खाना पीना स्कूल जाना सब भूल कर
सिर्फ झूला झूलना ,जब तक की
शिवाजी सर चोटी पकड़कर स्कूल
में न घसीट ले जाएँ .
और आज पता चला की हमारा
गोलू पोलू विचित्र किसी का
घर देखने जितना बड़ा हो गया था .
"please be clear kisaka ghar ."
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