सोमवार, 21 दिसंबर 2009

विरह

अमूमन
प्रेम की समिधायें
विरह के अग्निकुंड में
अर्पित होते देखी हैं।

सदियां बीत गई
कभी किसी अग्निदेव को
प्रकट होते नहीं देखा,
न ही देखा
प्रेम का यौवन लौटते हुए,
न उसे किसी वरदान से
दमकते हुए।

हां, देखा तो बस
'स्वाहा' का उच्चारण करते हुए
निच्छल हृदयों को
'स्वाहा' होते हुए।

17 टिप्‍पणियां:

Reetesh Gupta ने कहा…

बहुत बढ़िया लिखा है आपने...ह्रदय की भाषा अच्छी लगी

बधाई !!

अजय कुमार ने कहा…

भावों का अच्छा प्रस्तुतिकरण ,संवेदनशील रचना

seema gupta ने कहा…

विरह के भावो की सुंदर प्रस्तुती.....

regards

kshama ने कहा…

Sahi kaha...rhiday swaha ho jate hain..agnidev prakat nehee hote...

अविनाश वाचस्पति ने कहा…

सच्‍चाई का मंत्र
जिसमें नहीं कोई तंत्र
अमर रहे
प्‍यार का गणतंत्र।

शोभना चौरे ने कहा…

abhi to dono kavita ye sirf pdhi hai tippni ke liye bad me aati hoo.

दिगम्बर नासवा ने कहा…

आज तो कमाल का लिखा है अमिताभ जी .......... प्रेम और वो भी निश्चल प्रेम ............ अंत तो निहित है अग्नि में फिर चाहे विरह की अग्नि तो या प्रेम हवन हो ....... प्रेम तो अपने आप में वो पवित्र अग्नि है जिसमे मिल कर सबकुछ पवित्र हो जाता है .......... बहुत ही कमाल की अभिव्यक्ति

कडुवासच ने कहा…

... संवेदनशील अभिव्यक्ति !!!

ज्योति सिंह ने कहा…

अमूमन
प्रेम की समिधायें
विरह के अग्निकुंड में
अर्पित होते देखी हैं।
bahut hi shaandaar rachna

Alpana Verma ने कहा…

अमिताभ जी आप की कविताएँ उच्च स्तर की होती हैं.
चुने हुए सुंदर शब्दों में गुँथी हुई कविता.भाव अभिव्यक्ति सशक्त!
बधाई इस सुंदर रचना के लिए.

Anita kumar ने कहा…

सही कहा

दर्पण साह ने कहा…

Ya to prem hi saccha na raha ho(Hamesha jhoot hi ho ye to sambhav nahi lagta wo bhi tab jabki svah karte wakat bhi aah nahi nikalti), ya bhakti, ya phir agni-dev.

"'स्वाहा' का उच्चारण करते हुए
निच्छल हृदयों को
'स्वाहा' होते हुए।"

humne dekhe hai kai aise manzaar , kafi nazdeek se.

गौतम राजऋषि ने कहा…

अमिताभ भाई, इस कविता की कोई तारीफ़ नहीं। कुछ नहीं कह सकता....कितने स्वाहा हुये हृदयों की दर्द-गाथा को समेट दिया है आपने इस सहज सुंदर कविता में।

शुक्रिया कहूँ या बधाई दूँ एक अप्रतिम रचना पे?

सुशील छौक्कर ने कहा…

कई बार ऐसा होता है कि आदमी कुछ कह नही पाता है बस महसूस करता जाता है। कुछ ऐसा ही आपकी रचना को पढकर हो रहा है। शब्दों की जो तपिश है उसको बयान करना मुशिकल है मेरे लिए। छोटी रचना पर बड़ी बात कहती हुई।

हां, देखा तो बस
'स्वाहा' का उच्चारण करते हुए
निच्छल हृदयों को
'स्वाहा' होते हुए।

इन शब्दों पर क्या कहूँ अमिताभ जी ..........

मीत ने कहा…

सच कहा आपने अमिताभ जी...
सपने स्वाहा हुए..
हम स्वाहा हुए..
और स्वाहा हुआ जीवन..
सदियों से पर पड़ा है
ठंडा...
अपनी खुशियों का अग्निकुंड..
मीत

अपूर्व ने कहा…

यह विरह-कुंड भी उतना ही इंटीग्रल पार्ट है इस प्रेम-यज्ञ का..यह अपूर्णता ही उसे सघन बनाती है..पूर्णता देती है..तमाम ऐसी कालजयी प्रेम-कहानियों का अंत किसी वरदान से नही बल्कि इस ’स्वाहा’ से होता है...
स्वाहा भी अग्नि की पत्नी थी...जानते हैं आप!!!
कविता के बारे मे और क्या कहूँ!!

Pritishi ने कहा…

Bahut badhiya ... bahut sundar khayaal! Yah kavita atyadhik pasand aayi!

Ji, kaafi dinon baad yahan aana hua ... aapne theek kaha.

God bless
RC