कभी-कभी
आदमी जो कहता है
उसके अर्थ को अपने आस-पास के
परिवेश के कारण
बदल कर गाह्य कर लिए जाते है
और इस तरह शब्दों के
ईमान की हत्या हो जाती है।
शंकाओ के भेडिए
सच की लाश को
नोच-नोच कर खाने लगते है,
आदमी की आदमियत पर
और उसके स्नेह पर
जटिल मानसिकता आक्रमण
करने लगती है,
रिश्ते-नाते टूट कर बिखरने लगते है,
होता कुछ नही है
बस आदमी आदमी
नही रहता
उसका पवित्र नाता
किसी ग़लत फहमी के जाल में
उलझ कर तड़पता है।
बार-बार यदि वो अपनी
सफाई भी पेश करे
तो भी मन के अन्दर पेठी
विरूध्द भावना उसके रास्ते की
रुकावट बनती है,
और यह मान्य कर लिया जाता है
की जिस पर भरोसा किया
उसने, उसकी भावनाओ ने
सिर्फ़ लूटा या लूटना चाहा।
कैसी मानवता है ये ?
कैसी विचारशक्ति है ?
शायद इसी वजह से इस समाज में
प्रेम नही टिकता , नाते टूटते है,
रिश्ते बिखरते है,
और सात्विक हृदय की
पूछ नही होती,
उसे समझा नही जाता
और बहुत जल्द उसके ख़िलाफ़
एक घिनौनी मानसिकता
तैयार कर ली जाती है।
जबकि होना यह चाहिए की
किसी के प्रति कोई धारणा
बनाने से पूर्व
उसके सच को खंगालना
परम जरूरी है।
हम सबको एक द्रष्टिकोण से
नही देख सकते।
और यदि देखते है तो
हो सकता है
किसी बिरले को
खो दे।
बिमारी ... प्रेम की ...
1 हफ़्ते पहले
23 टिप्पणियां:
amitabh ji,
aapki kalam ko shat shat naman,
khoobsurat panktiyaan hai. kisike pavitra sneha ko ghinauni maansikta ke hathiyaar se maar daalna, kahaan ka insaaf hai?
Is kavita ke baad, meri nazar mein aapka sthaan aur badh gaya.
Dil ko choo liya, aur na jaane kitne hi maasoom dilo mein uthte sawaalo ko aapne is kavita dwaara darshaaya hai..
bus ye kavita aapki kalam se kaise janmi, kaun sa dird in sawaalo ka aadhaar bana, wo zarur batayiyega,
shabdo ke safar mein hamesha aapke sath,
Kajal
सच आपकी लेखनी का जवाब नही। आपके लिखे शब्द झकझोर देते है। और फिर पढने वाला आदमी सोचने पर मजबूर हो जाता है। कई बार पढी आपकी रचना। काश कि मैं भी ऐसा लिख पाता। कुछ टिप्स हमें भी दे दीजिए सर।
शायद इसी वजह से इस समाज में
प्रेम नही टिकता , नाते टूटते है,
रिश्ते बिखरते है,
और सात्विक हृदय की
पूछ नही होती,
उसे समझा नही जाता
और बहुत जल्द उसके ख़िलाफ़
एक घिनौनी मानसिकता
तैयार कर ली जाती है।
अद्भुत।
किसी के प्रति कोई धारणा
बनाने से पूर्व
उसके सच को खंगालना
परम जरूरी है।'
अमिताभ जी आप की कवितायेँ वास्तविकता के धरातल से उठी हुई अभिव्यक्तियाँ हैं.
आप की कविताओं में बहुत ही गहन सोच के दर्शन होते हैं.अक्सर प्रवाग्रहों से ग्रसित हो कर भी लोग धारणाएं बन लेते हैं.
संबंधों को परिपक्व होने का अवसर देने के लिए समय और धैर्य चाहिये जो आज कल कहाँ देखने को मिलता है..
यह भी सच है कि सच को सीधा बोलना अक्सर सही नहीं होता....एक दृष्टिकोण रख ही नहीं सकते सब के लिए!इन्सान हैं न !
शब्द सरल हैं, भाव गहन हैं.....
ऐसी कविता को, मेरा नमन है...
साभार
हमसफ़र यादों का.......
आपकी टिपण्णी के लिए बहुत बहुत शुक्रिया!
इतना अच्छा कविता लिखा है आपने कि कहने के लिए अल्फाज़ नहीं है! आपकी हर कविता में एक अलग सी बात होती है जो एक बार नहीं बार बार पड़ने को दिल करता है क्यूंकि बहुत ही गहराई होती है आपकी कविताओं में और सोचने पर मजबूर करती है! बहुत बढ़िया!
आदमी की आदमियत पर
और उसके स्नेह पर
जटिल मानसिकता आक्रमण
करने लगती है
vah kya khoob bat khi hai aadmi ki mansikta ko bkhubi pdha hai aapne .vidmbna hai ki ham sbko ak hi drshtikon se dekhte hai.
antrman ko chuti huai rachna .
shubkamnaye
हर बार की तरह चमत्कृत करते भाव और शब्द
... बेहद प्रसंशनीय रचना !!!!
अमिताभ जी...........
आपकी रचनाएं सोचने को मजबूर करती हैं...........जिस यथार्थ के धरातल पर आप रचना को लिखते हिन् वो अपने आस पास ही बिखरा हवा नज़र आता है............सचमुच जो भी कुछ इंसान कहना चाता है....उस का अर्थ बदल कर,......उसकी ह्त्या ही करता है यह समाज, या कोई इंसान .............
शंकाओ के भेडिए
सच की लाश को
नोच-नोच कर खाने लगते है.............ये भी सच ही कहा है आपने.......ग़लतफ़हमी इंसान को कहाँ पहुंचा देती है........उसकी कोई नहीं सुनता..... आपकी रचना सत्य के बहूत ही करीब है.......
"शंकाओ के भेडिए
सच की लाश को
नोच-नोच कर खाने लगते है, "
AAP KAMAAL HO!!!Isase jyaadaa kah nahin sakataa.
Shabd hi nahin hain mere paas.
~Jayant
"और यह मान्य कर लिया जाता है
की जिस पर भरोसा किया
उसने, उसकी भावनाओ ने
सिर्फ़ लूटा या लूटना चाहा।
कैसी मानवता है ये ?
कैसी विचारशक्ति है ?
अमिताभ जी कोई गहरी चोट लगती है आपकी रचना ...!!
गहरी अभिव्यक्ति है....!!
और संयोग देखिये आपने और मैंने लगभग एक ही समय में मुफलिस जी के ब्लॉग पे टिप्पणी की है ....!!
हम सब को एक दृ्श्टिअकोण से नही-----कितनी खरी बात कही है बहुत ही गहरे और शाश्वत भाव हैं जिन्हेण हम हमेशासे महसूस करते आये हैण और शायद कर्ते रहें गे आभार्
BAHUT SUNDAR RACHANA.
अमिताभ जी,
आपका पढना सुखद होता है, क्योंकि शब्द किसी विचार को नही बल्कि एक विचारधारा में निहित होते हैं।
प्रस्तुत कविता में जिस तरह आपने समाज में फैली हुई सतही मानसिकता को उजागर किया है वह स्तुत्य है। जहां किसी एक व्यक्ति के बारे में हमारी राय नही अनुमान होता है और हम उसी अनुमान के हिसाबे से आदमी को तौलते हैं जिन्दगी भर।
मुझे इन पंक्तियों ने बहुत प्रभावित किया :-
शंकाओ के भेडिए
सच की लाश को
नोच-नोच कर खाने लगते है,
आदमी की आदमियत पर
और उसके स्नेह पर
जटिल मानसिकता आक्रमण
करने लगती है,
रिश्ते-नाते टूट कर बिखरने लगते है,
होता कुछ नही है
बस आदमी आदमी
नही रहता
उसका पवित्र नाता
किसी ग़लत फहमी के जाल में
उलझ कर तड़पता है।
बहुत अच्छी रचना के लिये बधाइय़ाँ।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
Is arthpurna rachna ke liye badhai swikaren.
WAH....सुंदर भावाभिव्यक्ति के लिये साधुवाद स्वीकारें..
aapki rachna sachmuch sarahneey hai.
sabse bhinn hote hue abhinn hai.dilse badhai.
amitabh ji .
aapki ye kavita nishabd karti hai aur sochne par majboor ...
maanvata ki naitiukta par naye sawaal khade karti hui kavita hai aapki ..
mera naman aapki kavita ko aur aapke lekhan ko..
aabhaar..
क्या बात है अमित जी,,,,
हम सबको एक द्रष्टिकोण से
नही देख सकते।
और यदि देखते है तो
हो सकता है
किसी बिरले को
खो दे।
सबको मत तौल इक तराजू में,
हर कोई एक सा नहीं होता
आदमी की आदमियत पर
और उसके स्नेह पर
जटिल मानसिकता आक्रमण
करने लगती है....
thoughtful thinking...
शंकाओ के भेडिए
सच की लाश को
नोच-नोच कर खाने लगते है,
आदमी की आदमियत पर
और उसके स्नेह पर
जटिल मानसिकता आक्रमण
करने लगती है,
रिश्ते-नाते टूट कर बिखरने लगते है,
होता कुछ नही है
बस आदमी आदमी
नही रहता
उसका पवित्र नाता
किसी ग़लत फहमी के जाल में
उलझ कर तड़पता है।
aapki rachnaye sochne par majboor karti hai
किसी बिरले को खो दे..मन मत्स्य ,,सड़क और मै , मेरा जीवन सार तुम्ही हो... यादे पढ़ी बहुत अच्चा लिखा है ..आपने सड़क और मै...बहुत पसंद आई ...हमेशा से मुझे आप पर नाज रहा है भाई ..
और इस तरह शब्दों के
ईमान की हत्या हो जाती है।
bahut sundar rachna hai...
man ke vastvik bhavon ko vyakt karti hui...
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